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निःशंकितादि अष्टांगसम्यक्तीकी महिमा कहे है ॥ छप्पै छंद. जो परगुण त्यागंत, शुद्ध निज गुण गहंत ध्रुव । विमल ज्ञान अंकुरा, जास घटमांहि प्रकाश हुव । जो पूरव कृतकर्म, निर्जरा धारि वहावत । जो नव बंध निरोधि, मोक्ष मारग मुख धावत । निःशंकितादि जस अष्ट . गुण, अष्ट कर्म अरि संहरत । सो पुरुष विचक्षण तासु पद, बनारसी वंदन करत ॥ ५६ ॥
निःशंकितादि अष्ट अंगके ( गुणके ) नाम कहे है || सोरठा. प्रथम निसरौ जानि, द्वितीय अवछित परिणमन । तृतीय अंग अगिलान, निर्मल दृष्टि चतुर्थ गुण ॥ ५७ ॥ पंच अकथ परपोष, थिरी करण छठ्ठम सहज ।
सप्तम वत्सल पोष, अष्टम अंग प्रभावना ॥ ९८ ॥
सम्यक्तके अष्ट अंगका स्वरूप कहे है ॥ सवैया ३१ सा.
धर्ममें न संशै शुभकर्म फलकी न इच्छा, अशुभकों देखि न गिलानि आणें चित्तमें ॥ साचि दृष्टि राखे काहू प्राणीको न दोष भाखे, चंचलता भानि थीति ठाणे बोध वित्तमें ॥ प्यार निज रूपसों उच्छाहकी तरंग उठे, एइ आठो अंग जब जागे समकित ॥ ताहि समकितकों धरेंसो समकितवंत, बेहि मोक्ष पावे वो न आवे फिर इतमें ॥ ५९ ॥
अष्टांगसम्यक्तीके चैतन्यका निर्जरारूप नाटक बतावे है ॥ सवैया३१ सा० : *..... पूर्व बंध नासे सो तो संगीत कला प्रकासे, नव बंध रोधि ताल तोरत.. उछरिके ॥ निशंकित आदि अष्ट अंग संग सखा जोरि, समंता अलाप चारि करे स्वर भरिके ॥ निरजरा नाद गाजे ध्यान मिरदंग वाजे, छक्यो "
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