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(४९) सामान्य परिग्रहका और विशेष परिग्रहका स्वरूप ॥ सवैया ३१ सा.
आतम स्वभाव परभावकी न शुद्धि ताकों, जाको मन मगन परिग्रहमें रह्यो है । ऐसो अविवेकको निधान परिग्रह राग, ताको त्याग इहालौं समुच्चैरूप कह्यो है । अब निज पर भ्रम दूर करिवेको काज, वहुरी सुगुरु उपदेशको उमह्यो है ॥ परिग्रह अरु परिग्रहको विशेष अंग, कहिवेको उद्यम उदार लहलह्यो है ॥ २९ ॥ .
त्याग जोग परवस्तु सब, यह सामान्य विचार। विविध वस्तु नाना विरति, यह विशेष विस्तार ॥३०॥ पूरव करम उदै रस भुंगे । ज्ञान मगन ममता न प्रयुंजे ॥ मनमें उदासीनता लहिये । यो वुध परिग्रहवंत न कहिये ॥ ३१ ॥
अब ज्ञानीका अवांछक गुण दिखाये है ॥ सवैया ३१ सा. जे जे मन वांछित विलास भोग जगतमें, ते ते विनासीक सब राखे न रहत है ।। और जे जे भोग अमिलाप चित्त परिणाम, ते ते विनासीक धाररूप व्है वहत है । एकता न दुहो मांहि ताते वांछा फूरे नाहि, ऐसे भ्रम कारिजको मूरख चहत है ॥ सतत रहे सचेत परेसों न करे हेत, याते ज्ञानवंतको अवंछकं कहत है ॥ ३२॥
सवैया ३१ सा. जैसे फिटकडि लोद हरडेकि पुट विना, स्वेत वस्त्र डारिये मजीठ रंग नीरमें ॥ भीग्या रहे चिरकाल सर्वथा न होइ.लाल, भेदे नहि अंतर सुपेदी रहे चीरमें ॥ तैसे समकितवंत . राग द्वेष, मोह . विन, रहे निशि. वासर