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- करम निर्जरतु है ॥ सहज समाधि साधि त्यागी परकी उपाधि, आतम आराधि परमातम करतु है ॥ १८ ॥
ज्ञानते परमात्माकी प्राप्ति होय है उस ज्ञानकी प्रशंसा करे है ॥ सैवया ३१ सा.
जाके उर अंतर निरंतर अनंत द्रव्य, भाव भासि रहे पैं स्वभाव न टरत है ॥ निर्मलसों निर्मल सु जीवन प्रगट जाके, घटमें अघट रस कौतुक करत हैं ॥ जाने मति श्रुति औधि मनपर्ये केवलसु, पंचधा तरंगनि उमंगि उछरत है | सो है ज्ञान उदधि उदार महिमा अपार, निराधार एकमैं अनेकता धरत है ॥ १९॥
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ज्ञान विना मोक्षप्राप्ति नहीं सो कहे है ॥ सवैया ३१ सा.
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क्रूर कष्ट सहे तपसों शरीर दहे, धूम्रपान करे अधोमुख व्हैके फूले हैं ॥ ई महाग क्रियामें मगन रहे, वहे मुनिभार पैं पयार कैसे पूले है ॥ इत्यादिक जीवनिकों सर्वथा मुकति नाहि, फिरे जगमांहि ज्यों वयारके बघूले है | जिन्हके हिये में ज्ञान तिन्हहीको निरवाण, करमके करतार भरममें भूले है ॥ २० ॥
दोहा. लीन भयो व्यवहारमैं, उक्ति न उपजे कोय | दीन मयो प्रभुपद जपे, मुक्ति कहाँते होय ॥ २१ ॥ प्रभु सुमरो पूजा पढ़ो, करो विविध व्यवहार । मोक्ष स्वरूपी आतसा, ज्ञानगम्य निरधार ॥ २२ ॥ सवैया २३ सा.
झूझै ॥
काजविना न करे जिय उद्यम, लाज विना रण मांहि न डील बिना न सधैं परमारथ, सील बिना सतसों न अरुझे ॥