________________
(३८)
दोहा. जो हित भावसु राग है, अहित भाव विरोध । भ्रममाव विमोह है, निर्मल भावसु बोध ॥ ८॥ राग विरोध विमोह मल, येई आश्रवं मूल । येई कर्म बढाइके, करे धरमकी भूल ॥९॥ • जहां न रागादिक दशा सो सम्यक् परिणाम ।
याते सम्यक्वंतको, कह्यो निराश्रव नाम ॥१०॥ ज्ञाता निराश्रवपणामें विलास करे है सो कहे है । सवैया ३१ सा. _ ने कोई निकट भव्यरासी जगवासी जीव, मिथ्यामत भेदि ज्ञान भाव परिणये हैं ॥ जिन्हके सुदृष्टीमें न राग द्वेष मोह कहूं, विमल विलोकनिमें तीनों नीति लये हैं ॥ तजि परमाद घट सोधि जे निरोधि जोग, शुद्ध उपयोगकी दशामें मिलि गये हैं। तेई बंध पद्धति विडारि पर संग झारि, . भापमें मगन है के आपरूप भये हैं ॥ ११ ॥ अव ज्ञाताके क्षयोपशम भावते तथा उपशम भावते
चंचलपणा है तो कहे है ॥ ३१ सा. जेते जीव पंडित क्षयोपशमी उपशमी, इनकी अवस्था ज्यों लुहारकी संडासी है ॥ खिण आगिमांहि खिण पाणिमांहि तैसे येउ, खिणमें मिथ्यात. . खिण ज्ञानकला भासी है । जोलों ज्ञान रहे तोलों सिथल चरण मोह, जैसे कीले नागकी शकति गति नासी है | आवत मिथ्यात तव नानारूप बंधः । करे, नेउ कीले नागकी शकति परगासी है ॥ १२ ॥