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(३७) ज्ञाता निराश्रवी है सो कहे है ॥ चौपाई. जो द्रव्याश्रव रूप न होई । जहां भावाश्रव भाव न कोई ॥ जाकी दशा ज्ञानमय लहिये । सो ज्ञातार निराश्रव कहिये ॥ ४ ॥ ज्ञाताका सामर्थ्य (निराश्रवपणा ) कहै है । सवैया ३१ सा.
जेते मन गोचर प्रगट बुद्धि पूरवक, तिन परिणामनकी ममता हरतु है ॥ मनसो अगोचर अबुद्धि पूरवक भाव, तिनके विनाशवेको उद्यम धरतु है ॥ याही भांति पर परणतिको पतन करे, मोक्षको जतन करे भौनल तरतु है ॥ ऐसे ज्ञानवंत ते निराश्रव कहावे सदा, जिन्हको सुनस सुविचक्षण करतु है ॥५॥
गुरूनें ज्ञानीकू निराश्रवी कह्या ते ऊपर शिष्य प्रश्न करे है॥ . .
सवैया २३ सा. ज्यों जगमें विचरे मतिमंद, स्वछंद सदा वरते बुध तैसे ॥ चंचल चित्त असंजम नैन, शरीर सनेह यथावत जैसे ॥ भोग संजोग परिग्रह संग्रह, मोह विलास करे जहां ऐसे ॥ पूछत शिष्य आचारजकों यह, सम्यक्वंत निराश्रव कैसे ॥६॥
शिष्यके प्रश्नका गुरु उत्तर कहे है ॥ सवैया ३१ सा. ... पूरव अवस्था ने करम वंध कीने अव, तेई उदै आई नाना भांति रस देत हैं । केई शुभ साता केई अशुभ असाता रूप, दुहूंमें न राग न विरोध समचेत हैं ॥ यथायोग्य क्रियाकरे फलकी न इच्छाधरे, जीवन मुकतिको विरद गहि लेत हैं ॥ यातें ज्ञानवंतको न आश्रव कहत कोउ, मुद्धतासों न्यारे भये शुद्धता समेत हैं ॥ ७ ॥ .