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(३५) - मारगसों चूक्यो है । सम्यक् स्वभाव लिये हियेमें प्रगट्यो ज्ञान, ऊरध
उमंगि चल्यो काहूं. न रुक्यो है ॥ आरसीसो उज्जल बनारसी कहत आप, कारण स्वरूप व्हेके कारिजको ढूक्यो है ॥ १३ ॥
अब ज्ञानका अर कर्मका ब्योरा कहे है। सवैया ३१ सा. जालों अष्ट कर्मको विनाश नाहि सरवथा, तोलों अंतरातमामें धारा दोई वरनी ॥ एक ज्ञानधारा एक शुभाशुभ कर्मधारा, दुहूकी प्रकृति न्यारी न्यारी न्यारी धरनी ॥ इतनो विशेषजु करम धारा बंध रूप, पराधीन शकति विविध बंध करनी ॥ ज्ञान धारा मोक्षरूप मोक्षकी करनहार, दोषकी हरनहार भौ समुद्र तरनी ॥ १४ ॥ अब मोक्ष प्राप्ति ज्ञान अर क्रिया ते होय ऐसा जो स्याद्वाद है
. तिनकी प्रशंसा करे है ॥ ३१ सा.. __समुझे न ज्ञान कहे करम कियेसों मोक्ष, ऐसे जीव विकल मिथ्यातकी गहलमें ॥ ज्ञान पक्ष गहे कहे आतमा अबंध सदा, वरते सुछंद तेउ डूवे है चहलमें ॥ जथा योग्य करम करे पै ममता न धरे, रहे सावधान ज्ञान ध्यानकी टहलमें ।। तेई भव सांगरके उपर व्है तरे जीव, जिन्हको निवास स्यादवादके महलमें ॥ १५ ॥ . .. .... . ...' अब मूढके क्रियाका तथा विचक्षणके क्रियाका वर्णन करे है। सवैया ३१.
जैसे मतवारो कोउ कहे और करे और, तैसे मूढ प्राणी विपरीतता । धरत है ।। अशुभ करम बंध कारण वखाने माने, मुकतीके हेतु शुभ रीति
आचरतं है .॥ अंतरसुदृष्टि भई. मूढता विसर गई, ज्ञानको उद्योत .भ्रम तिमिर हरत है ॥ करणीसों भिन्न रहें आतम स्वरूप गहे, अनुभौ आरंभि रस कौतुक करत है ॥ १६ ॥
. पुन्यपाप एकत्व करण चतुर्थद्वार समाप्त भया ॥ ४ ॥ ..