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(३३) मानिये ॥ पापके उदै असाता ताको है कटुक स्वाद, पुन्य उदै साता मिष्ट रस भेद जानिये ॥ पाप संकलेश रूप पुन्य है विशुद्ध रूप, दुहूंको स्वभाव भिन्न भेद यों वखानिये ॥ पापसों कुगति होय पुन्यसों सुगति होय ऐसो फल भेद परतक्ष परमानिये ॥ ५ ॥ __ अब शिष्यके प्रश्नकू गुरु उत्तर कहे है पापपुन्य एकत्व
करण ॥ सवैया ३१ सा. पाप बंध पुन्य वंध दुहूमें मुकति नाहि, कटुक मधुर स्वाद पुद्गलको दखिये ॥ संकलेश विशुद्धि सहन दोउ कर्मचाल, कुगति सुगति जग जालमें विसेखिये ॥ कारणादि भेद तोहि सूझत मिथ्या मांहि, ऐसो द्वैत भाव ज्ञान दृष्टिमें न लेखिये ।। दोउ महा अंध कूप दोउ कर्म बंध रूप, दुहुंको विनाश मोक्ष मारगमें देखिये ॥ ६ ॥ ' अव मोक्ष मार्गमें पापपुन्यका त्याग कह्या तिस मोक्ष पद्धतीका
' स्वरूप कहे है ॥ सवैया ३१ सा. सील तप संयम विरति दान पूजादिक, अथवा असंयम कषाय विषै भोग है ॥ कोउ शुभरूप कोउ अशुभ स्वरूप मूल, वस्तुके विचारत दुविध कर्म रोग है ॥ ऐसी बंध पद्धति बखानी वीतराग देव, आतम धरममें करत त्याग जोग है ।। भौ जल तरैया रागद्वेषके हरैया महा, मोक्षके करैया एक शुद्ध उपयोग है ॥ ७ ॥ अव अर्धा सवैयामें शिष्य प्रश्न करे अर अर्धा सवैयामें
गुरु उत्तर कहे है ॥ सवैया ३१ सा. शिष्य कहे स्वामी तुम करनी शुभ अशुभ, कीनी है निषेध मेरे संशमन मांहि है ॥ मोक्षके सधैया ज्ञाता देश विरती मुनीश, तिनकी अवस्था तो निरावलंब नाहीं है । कहे गुरु करमको नाश अनुभौ अभ्यास, ऐसो