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(३१) जे ज्ञाता जाननहार है ते अकर्ता कैसा होय । सोरठा. ज्ञान मिथ्यात न एक, नहि रागादिक ज्ञान मही ॥ ज्ञान करम अतिरेक, ज्ञाता सो करता नही ॥ ३३ ॥ मिथ्यात्वी है सो द्रव्यकर्मका कर्ता नहि भावकर्मका कर्ता है
सो कहे है ॥ छप्पै. करम पिंड अरु रागभाव, मिलि एक होय नहि । दोऊ भिन्न स्वरूप वसहि, दोऊ न जीव महि.। करम पिंड पुद्गल, भाव रागादिक मूढ भ्रम । अलख एक पुद्गल अनंत, किम धरहि प्रकृति सम । निज निज विलास जुत जगत महि, जथा सहज परिणमहि तिम । करतार जीव जड़ करमको, मोह विकल जन कहहि इम ॥ ३४ ॥ ॥ अब जीवका सिद्धांत (आत्म प्रभाव कथन ) समभावे है ॥छप्पै. ___ जीव मिथ्यात् न करे, भाव नहि धरे भरम मल । ज्ञान ज्ञानरस रमे, होइ करमादिक पुदगल । असंख्यात परदेश शकति, झगमगे प्रगटं अति । चिद्विलास गंभीर धीर, थिर रहे विमल मति । जवलग प्रबोध घट महि उदित, तवलग अनय न पोखिये । जिम धरमराज वरतंत पुर, निहि तिहिं नीतिहि दोखिये ॥ ३५ ॥ . .
कर्ता कर्म क्रिया त्रितीय द्वार समाप्त भयो ॥ ३ ॥