________________
(४३ अथ सप्तम निर्जरा द्वार प्रारंभ ॥७॥
दोहा. वरणी संवरकीदशा, यथा युक्ति परमाण । मुक्ति वितरणी निर्जरा, सुनो भविक धरि कान ॥ जो संवर पद पाइ अनंदे । सो पूरव कृत कर्म निकंदे ॥
जो अफंद व्है बहुरिन फंदे । सो निर्जरा बनारसि बन्दे॥१॥ .. अव निर्जराका कारण सम्यज्ञान है तिस ज्ञानकी
महिमा कहे है। दोहा, सोरठा. महिमा सम्यकूज्ञानकी, अरु विराग बलजोय ॥ क्रिया करत फल मुंजते, कर्मबँध नहि होय ॥२॥ • पूर्व उदै संबंध, विषय भोगवे समकिती ॥
करे न नूतन वंध, महिमा ज्ञान विरागकी ॥ ३ ॥ अव सम्यकज्ञानी भोग भोगवे है तोहूं तिसर्वं कर्मका कलंक
नहि लगे है सो कहे है । सवैया ३१ सा. जैसे भूप कौतुक स्वरूप करे नीच कर्म, कौतूकि कहावे तासो कोन कहे रंक है ॥ जेसे व्यभिचारिणी विचारे व्यभिचार वाको, जारहीसों प्रेम भरतासों चित्त वंक है ।। जैसे धाई वालक चुंघाई करे लालपाल, जाने तांहि
औरको जदपि वाके अंक है ॥ तैसे ज्ञानवंत नाना भांति करतूति ठाने,. किरियाको भिन्न माने याते निकलंक है ॥ ४॥ .