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जैसे निशि वासर कमल रहे पंकहीमें, पंकज कहावे पैं न वाके दिग पंक है | जैसे मंत्रवादी विपधरसों गहावे गात, मंत्रकी शकति वाके विना विष डंक है | जैसे जीभ गहे चिकनाई रहे रूखे अंग, पानीमें कनक जैसे कायसे अटंक है || तैसे ज्ञानवंत नानाभांति करतूति ठाने, किंरियाको भिन्न माने याते निकलंक है ॥ ५ ॥
अब सम्यक्ती है सो ज्ञान अर वैराग्यकूं साधे हैं सो कहे है । २३ सा. सम्यक्वंत सदा उर अंतर, ज्ञान विराग उभै गुण धारे ॥ जासु प्रभाव लखे निज लक्षण, जीव अजीव दशा निखारे ॥ आतमको अनुभौ करि स्थिर, आप तरे अरु औरनि तारे ॥ साधि स्वद्रव्य लहे शिव सर्मसो, कर्म उपाधि न्यथा वमि डारे ॥ ६ ॥ विपयके अरुचि विना चारित्रका वल निष्फल है सो कहे है ॥ सवैया २३ सा.
जो नर सम्यक्त कहावत, सम्यक्ज्ञान कला नहि जागी ॥ आतम अंग अवध विचारत, धारत संग कहे हम त्यागी ॥ भेष धरे मुनिराज पटंतर, अंतर मोह महा नलं दागी ॥ सून्य हिये करतूति करे परि सो सठ जीव न होय विरागी ॥ ७ ॥ भेदज्ञान विना समस्त क्रिया ( चरित्र ) असार है सो कहे हैं ॥ सवैया २३ सा..
ग्रंथ रचे चरचे शुभ पंथ, लखे जगमें विवहार सुपत्ता ॥ साधि संतोष अराधि निरंजन, देई सुशीख न लेड : अदत्ता ॥ नंग धरंग फिरे तजि संग, छके सरवंग मुधा रस मत्ता ॥ ए करतूति करे सठ पै, समुझे न अनातम आतम सत्ता ॥ ८ ॥ .
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