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(२९) यहु किनहीं ॥ एक पक्ष वंध्यो एक पक्षसों अबंध सदा, दोड पक्ष अपने अनादि धरे इनही ॥ कोउ कहे समल विमलरूप कोउ कहे, चिदानंद. तैसाही वखान्यो जैसे जिनहीं ॥ बंध्यो माने खुल्यो माने द्वै नयके भेदजाने, सोई ज्ञानवंत जीव तत्त्व पायो तिनहीं ॥ २५ ॥ दोऊ नयकू जानकर समरस भावमें रहे है ताकी प्रशंसा सवैया ३१ सा.
प्रथम नियत नय दूजो व्यवहार नय, दुहूको फलाक्त अनंत भेद फले है ॥ ज्यों ज्यों नय फैले त्यों त्यों मनके कल्लोल, फैले, चंचल सुभाव लोका लोफलों उछले है। ऐसी नय.कक्ष ताको पक्ष तनि ज्ञानी जीव, समरसि भये एकतासों नहि टले है । महा मोहनासे शुद्धअनुभो अभ्यासे निज, वल परगासि सुखरासी मांहि रले है ॥ २६ ॥ व्यवहार और निश्चय बताय चिदानंदका सत्यस्वरूप कहे है। सवैया ३१. ___ जैसे काहु बाजीगर चौहटे बजाई ढोल, नानारूप धरिके भगल विद्या ठानी है ॥ तैसे मैं अनादिको मिथ्यात्वकी तरंगनिसों, भरममें धाइ बहु काय निजमानी है। अब ज्ञानकला जागी भरमकी दृष्टि भागी, अपनि पराई सब सोंज पहिचानी है ॥ जाके उदै होत परमाण ऐसी भांति भई,. निहचे हमारि ज्योति सोई हम जानी है ॥ २७ ॥
ज्ञाता होय सो आत्मानुभवमें विचार करे है। सवैया ३१ सा.
जैसे महा रतनकी ज्योतिमें लहरि उठे, जलकी तरंग जैसे लीन होय जलमें ॥ तैसे शुद्ध आतम दरव परजाय करि, उपजे विनसे थिर रहे. निज थलों ॥ ऐसो अविकलपी अजलपी आनंद रूपि, अनादि अनंत गहि