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अब शुद्ध कथन ॥ दोहा. • एक देखिये जानिये, रमि रहिये इक ठौर। ' समल विमल न विचारिये, यह सिद्धि नहि और ॥२०॥
- अब शुद्ध अनुभव प्रशंसा कथन ॥ सवैया ३१ सा.
जाके पद सोहत सुलक्षण अनंत ज्ञान, विमल विकाशवंत ज्योति लह लही है ॥ यद्यपि त्रिविधिरूप व्यवहारमें तथापि, एकता न तजे यो नियत अंग कही है ॥ सो है.जीव कैसीह जुगतिके सदीव ताके, ध्यान करवेकू मेरी मनसा उमगी है ॥जाते. अविचल रिद्धि होत और भांति सिद्धि, नाहीं नाही नाही यामे धोखो नाही सही है ॥ २१ ॥ . . . . . .
अब ज्ञाताकी व्यवस्था॥ २३ ॥ साः । . के अपनो पंद आप संभारत, के गुरूके मुखकी सुनि वानी ॥ भेदविज्ञान जग्यो निन्हके, प्रगटी सुविवेक कला रजधानी ॥ भाव अनंत भये प्रतिविबित, जीवन मोक्षदशा ठहरानी.॥ ते नर दर्पण जो अविकार, रहे थिररूप सदा सुख दानी ॥ २२ ॥ .
अब भेदज्ञान प्रशंसा कथन ॥ सवैया ३१ सा. याही वर्तमानसमै भन्यनको मिट्यो मोह, लग्योहै अनादिको पग्यो है कर्ममलसो ॥ उदै करे भेदज्ञान महा रुचिको निधान, ऊरको उजारो.भारो न्यारो दुद दलसो ॥ जाते थिर रहे अनुभौ विलास गहे फिरि, कबहूं अपनायौ न कहे. पुदगल सो ॥ यह करतूती यो जुदाइ करे जगतसो, पावक, ज्यो भिन्न करे कंचन उपल सो.॥ २३ ॥. . . . . . .