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अव निश्चय आत्म स्वरूप कथन || अडिल छंद. कहे वित्रक्षण पुरुष सढ़ा हूं एक हों। अपने रससूं भन्यो आपनी टेक हों || मोहकर्म मम नांहिनांहि भ्रमकूप है । शुद्ध चेतना सिंधु हंमारो रूप है ॥ ३३ ॥
अब ऐसा आपना स्वस्वरूप जाननेसे कैसी अवस्था प्राप्त होय है सो कहे है ॥ ज्ञान व्यवस्था कथन ॥ सवैया ३१ सा. तत्वकी प्रतीतिसों लख्यो है निजपरगुण, हग ज्ञान चरण त्रिविधी परिणयो है | विसद विवेक आयो आछो विसराम पायो, आपुहीमें आपनो सहारो सोधि लयोहै ॥ कहत बनारसी गहत पुरुषारथको, सहन सुभावसों विभाव मिटि गयो है || पन्नाके पकाये जैसे कंचन विमल होत, तैसे शुद्ध चेतन प्रकाश रूप भयो है ॥ ३४ ॥ .
अव विभाव छूटनेसे निज स्वभाव प्रगट होय तेऊपर नटी ( नाचणारी स्त्री ) को दृष्टांत कहे है। वस्तु स्वरूप कथन ॥ पात्राका ॥ सवैया ३१ सा.
जैसे कोड पातर बनाय वस्त्र आभरण, आवत आखारे निसि आडोपट करिके ॥ दूहूओर दीवटि सवारि पट दूरि कीजे, सकल सभाके लोक देखे दृष्टि धरिके ॥ तैसे ज्ञान सागर मिय्यात ग्रंथि मेढ़ि करी, उमग्यो प्रगट रह्यो तिहुं लोक भरिके ॥ ऐसो उपदेश सुनि चाहिये जगत जीव, शुद्धता संभारे जग जालसों निकरिके ॥ ३५ ॥
॥ इति श्रीसमयसार नाटकका प्रथम जीवद्वार समाप्त भया ॥ १ ॥