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(१८) दांत दियो है । सोहे चहुंओर उपवनकी . संवन ताई, घेरा करि मानो - भूमि लोक घेरि लिया है ॥ गहरी गंभीर खाई ताकी उपमा वताई, नीत्रो करि आनन पाताल जल पियो है । ऐसा है नगर याम नृपको न अंग- . कोऊ, योही चिदानंदसों शरीर भिन्न कियो है ॥ २८ ॥ . . . . . . - अब तीर्थकरकी निश्चै गुण स्वरूप स्तुति कथन ॥ सवैया ३१ सा.
जामें लोकालोकके स्वभाव प्रतिभासे सव, जगी ज्ञान शंकति विमल जैसी आरसी ॥ दर्शन उद्योत लियो अंतराय अंत कियो, गयो महा मोह . भयो परम महा ऋषी ॥ सन्यासी सहन जोगी जोगसू उदासी जामें, प्रकृति पयासी लगरही जरि छारसी || सोहे घट मंदिरमें चेतन प्रगटरूपं . ऐसो जिनरान ताहि बंदत बनारसी ॥ २९ ॥. . . . . . ___ अब शुद्ध परमात्म स्तुतिका दृष्टांत कह कर निश्चय अर .
व्यवहारको निर्णय करे हैं । कवित्त छंद. . . . . . तनु चेतन व्यवहार एकसे, निहचे भिन्न भिन्न है दोइ ॥ तनुकी स्तुति विवहार जीवस्तुति, नियतदृष्टि मिथ्याथुति सोइ ॥ जिन सो जीव जीव सो जिवनर, तनुजिन एक न माने कोइ ॥ ता कारण तिनकी जो स्तुति, 'सों जिनवरकी स्तुति नाही होइ ॥ ३० ॥ . ... .
अब वस्तु स्वरूप कथन दृष्टांतते दृढ करत हैं। संवैया २३ सा. ..
ज्यों चिरकाल गंड़ी वसुधा महि, भूरि महानिधि अंतर गूझी ॥ कोउ . उखारि धरे महि ऊपरि, जे हगवंत तिने सब सूझी ।। त्यों यह आतमकी अनुभूति, पंडी जड़भाव अनादि अरूझी ॥ नै जुगतागम साधि, कहीगुरु, लछन वेदि विचक्षेण बूझी ॥ ३१॥ . . . . . . . .