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(२०) द्वितीय अजीवद्वार प्रारंभ ॥ २॥
जीवतत्व अधियार यह, प्रगट को समझाय । अब अधिकार अजीवको, सुनो चतुर मन लाय ॥१॥
अव ज्ञान अजीवकू पण जाने है ताते संपूर्ण ज्ञानकी - अवस्था निरूपण करे है ॥ सवैया ३१ सा. . .. . - परम प्रतीति उपजाय गणधर कीसी, अंतर अनादिकी विभावता विदारी है। भेदज्ञान दृष्टिसों विवेककी, शकति साधि, चेतन अचेतनकी दशा . . निरवारी है ॥ करमको नाश करि अनुभौ अभ्यास धरि,. हियेमें हरखि निज उद्धता संभारी है ॥ अंतराय नाश गयो शुद्ध परकाश भयो, ज्ञानको विलास ताको वंदना हमारी है ॥ २॥ . . . ..अब गुरु परमार्थकी शिक्षा कथन करे है । सवैया ३१ सा. .
मैया जगंवासी तूं उदासी व्हेके जगतसों, एक छ महीना उपदेश मेरो मान रे ॥ और संकलप विकलपके विकार तनि, वैठिके एकंत मन एक ठोर आन रे । तेरो घट सरतामें तूंही व्है कमल वाकों, तूंही मधुकर है सुवास पहिचान रे ॥ प्रापति न व्है हे कळू ऐसा तूं विचारत है, सही है है प्रापति सरूपं योंही.जान रे ॥ ३ ॥ अब जीव अर अजीवका जुदा जुदा लक्षण कहे है । वस्तु
. स्वरूप कथन ॥ दोहा. चेतनवंत अनंत गुण, सहित सु आतमराम । याते अनमिल और सब पुद्गलके परिणाम ॥४॥