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(१५) अव ज्ञाताका चितवन कथन ॥ सवैया ॥ ३१ सा. अपनेही गुण परजायसो प्रवाहरूप, परिणयो तिहूं काल अपने आधारसो ॥ अंतर बाहिर परकाशवान एकरस, क्षीणता न गहे भिन्न रहे भौ 'विकारसो ॥ चेतनाके रस सरवंग मरिरह्या जीव, जैसे लूण कांकर भन्यो है रस क्षारसो ॥ पूरण स्वरूप अति उज्जल विज्ञानधन, मोको होहु प्रगट विशेष निरवारसो ॥ १५ ॥
अव द्रव्य पर्याय अभेद कथन ॥ कविता. जहां ध्रुवधर्म कर्मक्षय लच्छन, सिद्ध समाधि साध्यपद सोई ॥ शुद्धोपयोग जोग महि मंडित, साधक ताहि कहे सवकोई ॥ यो परतक्ष परोक्ष स्वरूपसो, साधक साध्य अवस्था दोई। दुहुको एक ज्ञान संचय करि, सेवे सिव वंछक थिर होई ॥ १६ ॥ . अब द्रव्य गुण पर्याय भेद कथन ॥ कवित्त. . ___ दरसन ग्यान चरण त्रिगुणातम; समलरूप कहिये विवहार ।। निहचै दृष्टि एक रस चेतन, भेद रहित अविचल अविकार ॥ सम्यक्दशा प्रमाण उभयनय, निर्मल समल एकही वार ॥ यौं समकाल जीवकी परणति, कहें जिनेंद गहे गणधार ॥ १७ ॥
अब व्यवहार कथन ॥ दोहा. एकरूप आतम दरव, ज्ञान चरण हग तीन । भेदभाव परिणाम यो; विवहारे सु मलिन ॥१८॥
अव निश्चयरूप कंथन ॥ दोहा. . यद्यपि समल व्यवहार सो, पर्यय शक्ति अनेक । . तदपि नियत नयं देखिये, शुद्ध निरंजन एक ॥ १९