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उतरे उसके पतन होने की सम्भावना बहुत कम रहती है। कहा जाता है कि इन विद्यापीठों में अध्य पन का कार्य प्रायः बौद्ध एवं अन्य साधु महात्मा करते थे। इन विद्यापीठों के संरक्षक बड़े बड़े राजा महाराजा थे । इन को चलाने के लिये कई गांवों की आवक होती थी। जिससे न तो विद्यापीठों के संचालकों को
आर्थिक-चिन्ता होती थी और न विद्यार्थियों को विद्याध्ययन के लिए द्रव्य का बोझ उठाना पड़ता था ।
पाश्चात्य संस्कृति का प्रमाव सैकड़ों वर्ष पहले की बातें अब तो शास्त्र मात्र और भूनकालीन इतिहास की बातें कह गई हैं। समय का परिवर्तन हो गया। सदियों से हमारा देश विभिन्न-संस्कृतियों के आधीन रहा । हमारी विद्या, हमारी संस्कृति, हमारा रक्षण, हमारी धार्मिकता, हमारो अर्थ-संपत्ति सभी दूसरों के प्राचीन रही,
और सो भी ऐसे लोगों के आधीन रही, जिनका भय हमसे विपरीत, जिनकी संस्कृति हमसे विपरात, बल्कि संक्षेप से यही कहना चाहिये कि चरित्र-निर्माण के साथ में संबंध रखने वाली किंवा मानव-जीवन की सफलता से सम्बन्ध रखने वाली, सभी बातें हमसे विपरीत ! एक साकृत जीवन में भौतिकवाद को, जड़वाद को प्रधानता देती है और इसी संस्कृति ( भारतीय मस्कृति) आध्यात्मिकवाद को। एक भोग की उपासिका है, तो दूसरी त्याग की, संयम की । एक स्वार्थसिद्धि के लिये दूसरे का सर्वनाश सिखाती है, तो दूसरो दूसरे के सुख के लिए स्वार्थ का भी बलिदान सिखाती है। इस प्रकार दोनों संस्कृतियों का संघर्षण ही हमारे देश के पतन का कारण हो रहा है। जिन महानुभावों के ऊपर चरित्र-निर्माण और संस्कृति-रक्षण की विशेष जवाबदारी है वे प्रायः भारतीय-संस्कृति से विपरीत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com