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बनाने की और उनके चरित्र निर्माण की । 'शिक्षक' गुरू है, गुरु की 'गुरुता' के आगे शिष्य मस्तक झुकाए बिना न रहेगा । मेरा विश्वास है कि त्याग, संयम, वात्सल्य का प्रभाव दूसरे पर पड़े बिना नहीं रहता । आज छात्रगण अपने शिक्षकों को समझ गये हैं, उनकी बेदरकारी का उन को खयाल है, उनके व्यसनों से वे परिचित हैं, उनके भ्रष्टाचार को वे स्वयम् अनुभव करते हैं, उनकी कर्त्त व्यशीलता वे अपनी आँखों से देखते हैं, उनका मिध्याडम्बर, उनकी लोभवृत्ति, श्रीमन्त और निर्धन विद्यार्थियों के साथ होने वाली उनकी भिन्न-भिन्न मनोवृत्तियाँ इत्यादि प्रायः सभी बातें आज का विद्यार्थी प्रतिक्षण, देख रहा है | अहिंसा और सत्य, दया और दाक्षिण्य, वात्सल्य और प्रेम आदि का पाठ पढ़ाने के समय विद्यार्थी अपनी दृष्टि ऊँची नीची करके गंभीरता पूर्वक गुरुजी के हार्दिक भावों का पाठ पढ़ता है । विद्यार्थी उस समय क्या सोचता है ? " अभी कल हो तो मुझको पास कराने के लिए इन्होंने रुपये ऐंठे हैं । आज गुरूजी प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता की फिलोसोफी मुझे समझा रहें हैं ।” वेतन कम मिलता हो, कुटुम्ब का पोषण न होता हो किन्तु इन बातों का 'गुरुत्व' के साथ क्या सम्बन्ध है ? जुश्रा खेलते समय खर्च की कमी नहीं मालूम होती, नित्य सिनेमा देखते समय पैसे की तंगी का भान नहीं होता, बार बार होटलों में जाकर के निरर्थक खर्च करते समय पैसों की कमी नहीं मालूम होती विद्यार्थियों को पढ़ाने के समय, 'चरित्र निर्माण' के समय, दिल में यह सोचना कि पढ़ें तो पढ़ें, न पढ़ें वो भाड़ में जाँय, सरकार वेतन कम देती है, मँहगाई अपार है, कुटुम्ब का पूरा खर्च होता नहीं, हम क्यों पढ़ावें ? पढना होगा तो ट्यूशन देंगे हमको, पास होना होगा तो मुहँ माँगे: पैसों पर पास करा देंगे" यह कहाँ तक उचित है ?
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