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परोपकार और सेवा का नाम मात्र रह गया । किन्तु यह शिकारी की शिकार पकड़ने की मीठी बोली के सिवाय और क्या है | आज सेवकों बल्कि सेवा मूर्तियों की उत्पत्ति बरसात के दिनों में बिजली या गैस की बत्ती के नीचे उत्पन्न होने वाले जीवों की उत्पत्ति के समान हो रही है । और वे सेवा मूर्तियाँ अपने को देश के उद्धारक, समाज के दुःख-नाशक बतलाते हैं । किन्तु आज उनके प्रति जनता में जो घृणा, तिरस्कार देखा जाता है, इसका भी तो कुछ कारण होना चाहिये | सच्चे सेवक वे हैं, जो अपनी शुद्ध सेवाओं से दूसरों के हृदय में स्थान प्राप्त करते हैं। अपना नुकसान उठाकर के भी दूसरों की सेवा करते हैं । कदाचित नुकसान न करते हुये दूसरों की सेवा करते हों और अपनी स्वार्थ सिद्धि के साथ दूसरों की सेवा करते हों, यहाँ तक भी गनीमत समझी जानी चाहिये, किन्तु दूसरों का भला करना तो दूर रहा, केवल अपना स्वार्थ साधने के लिए सेवा के नारे लगाना जनता से कहाँ तक छिपा रह सकता है ।
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आज जिन सेवा - मूर्तियों से भारत खद-बद हो रहा है, उनमें से कुछ लोगों के काम तो निर्दोष से निर्दोष, पवित्र से पवित्र, मनुष्यों की बुराइयां करके अपना प्रभाव स्थापित करने का देखा जाता है कुछ लोगों का क्रोम एक समझदार बालक की सी योग्यता रखते हुये बड़े बड़े विद्वान, वयोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध लोगों को भी धौंस बताकर अपना प्रभाव स्थापित करने का होता है । ऐसी सेवा मूर्तियां जब कहीं इकट्ठी होती हैं और अपनी अपनी सेवाओं के नारे लगाने की स्पर्धा करती हैं, उस समय उनको सेवा का मंगलाचरण एक-दूसरे पर आक्षेपों से शुरू होकर गाली-गलौज, हाथा-पाई, कोशा-कोशी, मुष्ठा-मुष्ठी, लट्ठा नट्टी और आखिरी खून-खरात्री में आता है । सेवा जैसे
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