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सर्व व्यापी उच्खलता
इस समय विद्यार्थियों में उच्छखलता बहुत बढ़ जाने की आवाज सर्वत्र सुनाई देती है । कभी कभी तो बिना प्रयोजन उच्छृखलता की मात्रा इतनी बढ़ी हुई देखी जाती है कि दुःख
और आश्चर्य होता है। ऐसा प्रतीत होता है मानो मानवता ही उन में नष्ट हो गई है।
कुछ वर्षों पहिले की बात है, गुजरात के एक शहर में मेरी व्याख्यानमाला चल रही थी, वहां के कालेज के कुछ प्रोफेसर मेरे पास आये। कालेज में एक व्याख्यान देने की विनती की। व्याख्यान के दिन, ठीक समय कुछ मिनटों पहिले कुछ सज्जनों के साथ मैं गया। मैंनेकालेज के फाटक में प्रवेश किया, उस समय घंटी बजी और विद्यार्थियों को छुट्टी मिली। मैंने देखा बड़ी बड़ी उमर के विद्यार्थी मुझे देख कर सोटियां बजाने लगे, पैरों से धूल उड़ाने लगे. और अनेक प्रकार की चेष्टाएँ करने लगे। कुछ प्रोफसर मुझे व्याख्यान भवन में ले गये । भवन विद्यार्थियों से खचाखच भर गया। प्रिंसिपल और प्रोफेसर मेरा परिचय देने को खड़े हुए। वे नोखते गये, सारे भवन में कोलाहल मचा रहा । पैरों का पटकना, तालियां पीटना, सीटियां बजाना चालू रहा । मुझे उस दिन व्याख्यान में जो कहना था, उसके विचार
आना तो दूर, वर्तमान समय के विद्यार्थियों के जीवन के हो विचार आने लगे। साथ साथ मुझे भय भी होने लगा कि जब मैं बोलने लगूगा, तब ये लोग मेरी दशा कैसी करेंगे? प्रोफेसर ने उसी कोलाहल में अपना बोलना समाप्त किया और मुझे बोलने के लिये प्रिंसिपल ने विनती की। मैं क्या बोलू ? किसके
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