Book Title: Samayik Lekh Sangraha
Author(s): Vidyavijay
Publisher: Vijaydharmsuri Jain Granthmala

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Page 118
________________ ( १०९ ) 15........... निरीक्षण किया । मेरे पास बैठे और बात-बात पर उन्होंने संस्था की तारीफ की। मैंने कहा साहब, हमारी संस्था में कितनी खामियां हैं, कितनी अपूर्णताएं हैं, हमारा कार्य कितना दोष पूर्ण है, यह तो आपने नहीं बताया । आप जैसे महान शिक्षण शास्त्री, विद्वान, अनुभवी, महानुभाव से तो में यही आशा रखता हूं कि आप हमारे मार्ग दर्शक बनें, संस्था की न्यूनताएं बतावें, ताकि धीरे-धीरे उन खामियों को दूर करने में हम लोग समर्थ हो सके ।” उन्होंने कहा "संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं, कुटुम्ब नहीं, समाज नहीं, शासन नहीं कि जिसमें न्यूनता न हो। मैं तो इस संस्था के पीछे आप लोगों की जो भावना है और उन भावनाओं को सफल बनाने का जो आपका प्रयत्न है, उसी को देखकर प्रसन्न होता हूं । आदर्श भावना और आदर्श प्रयत्न न्यूनताओं को अपने आप दूर कर लेंगे ।" कहने का तात्पर्य यह है कि "दृष्टि वैसी सृष्टि ।" जिस कार्य को हम जिस दृष्टि से देखेंगे, उसी प्रकार का दृश्य हमारे सामने आवेगा । 'दृष्टि से मेरा मतलब है मनोवृत्ति ।' इसीलिये बड़े जबाबदार पदाधिकारियों में उदार दृष्टि की आवश्यकता है और जो वास्तव में बड़े होते हैं, वे प्रायः उदार दृष्टि वाले ही होते हैं। वे किसी का नुकसान करना तो चाहते ही नहीं । खास करके इस समय में, जब कि सारे संसारे में अन्धाधुन्धी चल रही है, ईर्ष्या, द्वेष का साम्राज्य सर्वत्र फैल रहा है, जरा-जरा से स्वार्थ के लिये मनुष्य कैसे भी अच्छे से अच्छे कार्य को नष्ट करने में नहीं हिचकता, उस अवस्था में जवाबदार व्यक्तिओं को कितनी गम्भीर, मस्तिष्क का संतुलन और विचार शीलता रखने को आवश्यकता है, यह दिखलाने की आवश्यकता नहीं है क्या ? जबाबदार व्यक्ति के थोड़े से प्रमाद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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