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( ग )
इसका एक ही कारण है और वह यह है कि पुण्य पाप की भावनाओं को हृदय से दूर करना । ईश्वर को जगत का पिता भले ही माना जाता हो, किन्तु अपने स्वार्थ के लिये, अपने सौख्य के लिये ईश्वर के छोटे-छोटे बच्चों का संहार करना यह क्या ईश्वर को और अपनी आत्मा को धोखा देना नहीं है ! ईश्वर का अपमान नहीं है ? एक ओर 'आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यतियोऽर्जुन; सुखं वा यदि वा दुःख, संयोगी पर मोमतः ।' यह ईश्वर : आज्ञा मानी जाय, और दूसरी ओर से अपने स्वार्थ के लिये जीवों का संहार किया जाय, यह आज्ञा कैसी ?
हरिरस आदि जङ्गल के जानवरों का, शिकार से संहार किया जाय, और कहा जाय यह कि, 'खेती की हानि करते हैं, इस लिये वे मारे जाते हैं ।' परन्तु, मनुष्य यह भूल ही जाता है कि जिन राज्यों में पूर्व समय में शिकार नहीं होता था, उस समय आज की अपेक्षा कई गुनी अधिक फसल उत्पन्न होती थी । आज 'अधिक अन्न उपजाओ' की चिल्लाहट की जाती है, किन्तु उस पाप का परिणाम है कि दिन प्रति दिन अन्न का दुःख बढ़ता हो जाता है और दूसरों को तरफ 'भिक्षां देहि' करके लज्जा जनक हमें हाथ पसारना पड़ता है ।
एक राजा ने ३-४ शिकारियों को रख कर के शहर के कुत्तों का संहार करने का हुक्म दिया। धर्म के स्थान ह, हिन्दुओं का मोहल्ला हो, चाहे कोई भी स्थान हो कुत्ता को जहाँ देखो गोली से उडा दो, ऐसी आज्ञा दी । जब कहा गया कि यह तो ठीक नहीं होता, तो जबाव मिला ' कुत्तों के कारण मेरी और प्रजा की निद्रा में भंग आता है ।' कितना विचित्र जवाब | साठी प्रजा तो बिचारी इस हिंसा को देख कर रो रही थी और स्वयं राजा शहर से ४ मील दूर एक महल में रहते थे, फिर भी कुत्तों से
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