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को स्वार्थ परागण नहीं, किन्तु परमार्थ परायण बनना चाहिए इस आध्यात्मवाद का स्थान जड़बाद ने ले लिया। परिणाम यह आश कि हम मानवता से भी नीचे गिरते गये । मानवधर्म की दया, दाक्षिण्य, प्रेम, त्रिनय, सभ्यता, छोटे बड़ों की मर्यादा ये बातें हम में से लुप्त होती गई और हम सब समझने लगे कि, पिता हो या माता, साधु हो या गृहस्थ, बड़ा अधिकारी हो या छोटा मनुष्य, हम सब समान हैं और समानता के नाते उनके साथ कैसा भी व्यवहार करने का हमें हक़ है। मतलब कि हमारी संस्कृति का ह्रास होने के कारण, हमारी मानवधर्म की भावनायें नष्ट हुई | उद्धृङ्खलता का यह मुख्य कारण है ।
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२ - मानव जीवन के संस्कारों का विकास करने वाली चीज शिक्षण है। पिछले कई वर्षों से हमें जो शिक्षण मिल रहा है, वह विषयुक्त दूध है और इसी का परिणाम है कि शिक्षण का हेतु 'सा विद्या या विमुक्तये,' 'मातृदेवो भव' 'पितृदेवो भव' 'आचार्य देवो भव', 'अतिथि देवो भव', 'सत्यम् वद', 'वर्मम् चर' ग्रह सब हम से हजारों कोस दूर हो गये, इसके स्थान में 'स्वार्थम साधय' इस एक सूत्र ने स्थान लेकर इसके लिये जो कुछ करना हो करने की प्रवृत्तियां हमारी जागृत हुई । परिणाम यह आया कि विद्या, विद्यागुरु और विद्या का हेतु - उससे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं रहा। और हम में उद्रृङ्खलता भाई |
३- खान पान, रहन सहन, रीति रिवाज, वेष भूषा इत्यादि बातों का प्रभाव जीवन पर पड़े बिना नहीं रहता । तामसिक, राजसिक और सात्विक ये तीन प्रकार की चीजें। मानव जीवन में प्रभाव डालती हैं। वर्तमान समय के खान पान, रहन सहन वगैरा ने जीवन से सम्बन्ध रखने वाली प्रत्येक वस्तुओं में परिवर्तन कर दिया है, यह दिखाने की आवश्यकता नहीं है ।
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