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यह बताते हैं कि हम पढ़े-लिखे लोग भी इमानदारी के साध काम करें तो कितना कर सकते हैं।
इसी प्रकार शिक्षण संस्थाओं में शिक्षक-प्रोफेसर लोग काफी काम पढ़ाने में करते हैं । परन्तु कई लोग बिचारे एक-दो पिरीयड से अधिक पढ़ाने में मानो अपने डिपी का पहाड़ उनके ऊपर गिर पड़ला देखते हैं। ऐसे लोग अपने शरीर का इतना प्रमाद दयापात्र बनाते हैं कि फिर उनसे कोई भी काम नहीं होता। कमनसीबी से ऐसे महानुभावों को अपनी पोजीशन की नौकरी न मिले, तो उन्हें भगकर आन्तरिक दुःख उठाना पड़ता है।
इसलिये बुद्धिजीवी या श्रमजीवी प्रत्येक मानव को श्रम द्वारा हा द्रव्योपार्जन करना चाहिये । श्रमसे पैदा किये हुये अन्न में मिठास होती है। वह पाचक होता है । मन में एक प्रकार का अभिमान होता है कि मैंने अपने परिश्रम की रोटी खाई है और कुदरत भी ऐसे परिश्रीमी मनुष्यों का साथ देती है । वरना रोग-शोक संताप में ही जीवन व्यतीत होता है ।
राष्ट्र के उत्थान के लिए भी प्रत्येक भारतीय को बुद्धिजीवी की अपेक्षा श्रमजीवी बनना बहुत जरूरी है। चाहे श्रम किसी भी क्षेत्र में हो । निरर्थक बिना परिश्रम पैदा करने की भावना को दूर करना चाहिये।
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