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( १०४ ) ने अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग करने के लिये एक बड़ी रकम निकालकर धार्मिक ज्ञान प्रचार, संस्कृति विद्या प्रचार अथवा सार्वजनिक शिक्षण प्रचार के लिये स्थापन की हुई होती है। उसका व्यय उसी रकम में से चलाया जाता है। आवश्यकता पड़ने पर जैसे शासन से सहायता ली जाती है, वैसे जनता भी ऐसी परोपकारार्थ पलने वाली संस्थाओं को सहायता करती है।
इनमें कुछ ऐसी भी संस्थायें होती है, जो किसी समाज की तरफ से, समाज के श्रीमन्तों से चन्दा एकत्रित करके किसी उद्देश्य को लेकर स्थापन की गई होती हैं।
इस प्रकार केवल परोपकारार्थ शिक्षण प्रचार के लिये स्थापन होने वाली संस्थाओं की व्यवस्था वर्तमान युग के नियमानुसार स्थानिक कमेटी, व्यवस्थापक कमेटी, जनरल कमेटी आदि द्वारा होती है । ऐसी संस्था के सिर पर द्रव्य-व्यय की बहुत बड़ी जवाबदारी होने से प्रतिवर्ष के आय-व्यय के हिसाबों को, बाकायदा मान्य ऑडोटर से ऑडिट कराकर और जनरल कमेटी से बहाली लेकर, मेनेजिंग कमेटी द्वारा प्रकाशित करना, अनिवार्य हो जाता है ।
ऐसी संस्थाएं प्रायः किसी शिक्षा प्रेमी साधु या गृहस्थों की प्रेरणा और उनकी ऊँची भावनाओं से स्थापित होती हैं। ऐसी संस्थाओं को यदि उसके प्रेरक और स्थापक की सेवा का लाभ निःस्वार्थवृत्ति पूर्वक मिल जाता है, तो वह संस्था 'सोने में सोहागा' बन जाती है। क्योंकि जिन उद्दश्यों और महत्वाकांक्षाओं को लेकर, जिसकी प्रेरणाओं से ऐसी संस्थाएं स्थापन होती है, वे स्वयं संस्था के पीछे रही हुई भावना को सफल करने में जितनी दिलचस्पी, प्रेम और ममत्व रख सकते हैं, वैसा दसरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com