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का नाश करना तो दूर रहा दूसरे की भलाई के लिए अपनी कुर्बानी करने को कहती हैं ।
भारतीय संस्कृति प्रत्येक क्रिया में पुण्य-पाप की भावना को सामने रखती है अर्थात् भलाई और बुराई इन दो भावनाओं को सामने रख कर मन, वचन, काया की प्रवृत्ति रखने वाला मनुष्य हजारों बुराइयों से बच जायगा । और बुराइयों से बचकर भात्म विकास की तरफ बढ़ना, यही भारतीय संस्कृति का वास्तविक हेतु है ।
मानव जाति के प्रति समानता का व्यवहार करना यह भारतीय संस्कृति का प्रथम प्रतीक है। और समानता वही मनुष्य रखता है जो, "आत्मनः प्रतिकलानि परेषां न समाचरेत्" इन नियम का पालन करता है । अर्थात् जो हमें प्रतिकुल है, ऐसी बातों का व्यवहार हमें दूसरे के साथ नहीं करना चाहिए । हमारी वस्तु कोई चोरी से ले जाय वह हमें पसन्द नहीं, हमें कोई तकलीफ दे वह हमें पसन्द नहीं, हमारे सामने कोई झूठ बोले यह हमें पसन्द नहीं, हमारी बहन बेटी के सामने कोई कुदृष्टि से देखे यह हमें पसन्द नहीं, हमारे प्रति कोई गुस्सा करे गाली दे, यह हमें पसन्द नहीं । हमें चाहिए कि जो चीज हमें पसन्द नहीं, उसका व्यवहार हम दूसरे के साथ भी न करें । यह भारतीय संस्कृति का प्रथम प्रतीक है ।
संसार में क्लेश और वैमनस्य का कारण ही यही है । हमारे साथ कोई दुर्व्यवहार न करे, यह तो हम चाहते हैं लेकिन हम हमारी सत्ता, श्रोमन्तई, शान, बुद्धिबल का उपयोग किसी के साथ किसी भी प्रकार से करके हम अपना आतंक जमाये रखना चाहते हैं । हमारी शक्तियों के बल से हम अपना स्वार्थ
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