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सिद्ध करना चाहते हैं । हम हमारी सत्ता सब पर थोपना चाहते हैं। यही अशान्ति का कारण हैं और इसका कारण इस संस्कृति की क्षीरसता है।
भारतीय संस्कृति का दूसरा प्रतीक है पूज्यों का बहुमान, भादर और इसीलिए भारतीय शास्त्रों में यह आदेश दिया गया 'मातृदेवो भव', पितृदेवो भव', 'प्राचार्यदेवो भव', 'अतिथिदेवो भव' इत्यादि । तुम माता को देव समझो। पिता को देव समझो अतिथि को देव समझो। आदरणीय पुरुषों का आदर यदि न किया जाय, तो मानवता कहाँ रहेगी ? आज की सर्व व्यापी उच्छृखलता किसका परिणाम है ? हम अपनी संस्कृति के संस्कारों से दूर हो गये । शिक्षण का वास्तविक हेतु यही था। शिक्षण मानवता के लिए था और मानवता दया, दाक्षिण्य, प्रेम सद्भाव, हमदर्दी में रही हुई है। कहा जाता है-वर्तमान समय में शिक्षण बहुत आगे बढ़ गया है। किन्तु हम भूल जाते हैं कि आज के जगत से मानवता हजारों कोस दूर होती जा रही है। थोड़े पढ़े हुये मनुष्य जिनको सुयोग्य माता पिता के संस्कार प्राप्त हुये हैं, जिन्होंने त्यागी, संयमी, सद्गुणी गरुओं द्वारा शिक्षण प्राप्त किया है, उनमें जो मानवता के गुण देखे जाते हैं, वे पाश्चात्य संस्कृति में पले पोसे साहेब शाही में अपना गौरव समझने वाले बड़ो बड़ी डिग्री धारी महानुभावों में प्रायः बहुत कम पाये जाते हैं । मैं प्रायः शब्द इस लिये लगाता हूं कि ऐसे महानुभावों में भी कोई कोई अपवादरुप उच्च कोटि के मानवता के गुण रखने वाले महानुभाव भी देखे जाते हैं और इसका कारण तो उनकी कौटुम्बिक परम्परागत संस्कृति के संस्कार ही मालूम होते हैं।
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