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से चलने वाली संस्थाएं शिक्षण का कार्य करते हुए भी सर्वजनोपयोगी चरित्र निर्माण का प्रशंपनीय कार्य करती हैं । इनमें दूर-दूर के लोग भी लाभ लेते हैं। इन बातों को देखकर ऐसी संस्थाओं को सहायता में विवेक बुद्धि का उपयोग करना शामकों के लिए आवश्यक है । संक्षेप में कहा जाय तो शासन की ओर से शिक्षण संस्थाओं को महायता देने के नियमों में उपयोगिता अनुपयोगिता का ध्यान जितना रखना जरूरी है, वैसे स्वार्थ के लिए और परमार्थ के लिए चलने वाली संस्थाओं का भेद ममझना भी आवश्यक है।
एक बात मुझे और भी कहनी है। शासन की ओर से शिक्षण प्रणाली में परिवर्तन करने का प्रयत्न प्रारम्भ हुआ है यह देश के लिए सद्भाग्य को निशानी है। मैं इस प्रसङ्ग पर अनुरोध करूँगा कि शासन हमारे बालक और युवकों के चरित्र निर्माण में मानता है, तो एक साथ सर्वत्र नहों, तो कम से कम किसी एक स्थान में एक प्रयोग के तौर पर प्राचीन और पर्वाचीन पद्धति के मिश्रणपूर्वक 'गुरुकुल' पद्धति की एक शिक्षण संस्था स्थापन करे, जिम में ५०० विद्यार्थियों के लिए स्थान रखा जाय । उपका पाठ्यक्रम स्वतन्त्र बनाया जाय । उसका एक निःस्वार्थ, निर्लोभी. अपरिग्रही नेता निश्चित किया जाय । शिक्षकों की नियुक्ति उन्हीं के ऊपर रखी जाए। शुद्ध वातावरण में यह आश्रम रखा जाए। अधिकारियों की कोई दखलगिरी इसके ऊपर न रखी जाए। बेशक केवल सरकार के व्यय से ही ऐसी संस्था चलाई जाने के कारण भार्थिक आय-व्यय की प्रामाणिकता की देख-रेख मरकार अवश्य रखे।
प्रयोग के तौर पर यदि सरकार ऐसी संस्था चलाये और कम से कम १० वर्ष का इमका अनुभव कर के देखें कि इसका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com