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हैं, 'कि हमने इतने मेट्रिक पास किए,' 'इतने मिडिल पास किए' इत्यादि । ऐसी संस्थाए समस्त विद्यार्थियों से जैसा पूरा खर्च लेती हैं वैसे जनता और शासन से भी किसी न किसी निमित्त से काफी सहायता लेकर स्वयं मालदार बनती हैं। मेरा नम्न मत है कि ऐसी संस्थाएँ किसी देश के लिये लाभदायक नहीं। क्योंकि केवल शिक्षण देने का कार्य तो शासन की ओर से होता ही है। ऐसी स्वतन्त्र संस्थाओं का कोई महत्व हो तो उसकी विशेषताओं में है । और वह विशेषता चरित्र-निर्माण की एवं किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों को स्वार्थरहितता की है । यदि ये बातें स्वतन्त्र संस्थाओं में न हों और केवल व्यवसाय रूप संस्थाएं चलाई जाती हो तो वह शासन का बोमा कम नहीं करती हैं, किन्तु विघ्नभूत है।
जो स्वतन्त्र संस्थाएँ किसी भी व्यक्ति या व्यक्ति के निजी स्वार्थ से रहित केवल परोपकारार्थ और खाम करके गरीब और मध्यवर्ग के लोगों के लिए समाज की ओर से चलाई जाती हो ऐसी संस्थाओं के प्रति शासन को विशेष ध्यान देना आवश्यक है । क्योंकि शासन के सहकार से हो वह अधिक उन्नतिशील हो सकती है। .
शासन की ओर से जैसे अन्य विभागों में, वैसे शिक्षा विभाग में भी नियम बनते हैं, नियमों का बनाना अनिवार्य है। नियमों से ही शासन चलता है किन्तु उन नियमों के बनाने के समय ऐसी स्वतन्त्र संस्थाओं की उपयोगिता-अनुपयोगिता का ध्यान रखना आवश्यक हो जाता है। शिक्षण का प्रधान लक्ष्य रहते हुए शिक्षण प्रणाली, उसके हेतु, साधन की आवश्यकता इत्यादि बातें सोचना बहुत आवश्यक हैं। शासकीय शिक्षण संस्थाएँ केवल शिक्षण का कार्य करती हैं जब कि गुरुकुल पद्धति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com