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इसी प्रकार बुरा करने वालों के भी तीन भेद हैं:
१ - अपने स्वार्थ के लिए दूसरों का बुरा करना । २- स्वार्थ नहीं रहते हुये भी दूसरों का बुरा करना । ३—अपना नुकसान उठाकर भी दूसरों का बुरा करना ।
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इस प्रकार भला और बुरा करने वाले मनुष्य संसार में पाये जाते हैं। भला करने वाले लोकप्रिय होते हैं और बुरा करने वाले लोगों की दृष्टि में गिर जाते हैं। भारतवर्ष को संस्कृति हमेशा दूसरों का भला करने की ओर रही है। भारत का सावा रण संस्कारी मनुष्य भी 'आत्मनः प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत्' इस प्रतीक को मानता आया है। जो हमें इष्ट नहीं है, उसका व्यवहार दूसरों से नहीं करना, इसी सिद्धान्त पर भारतीय मनुष्यों की मनोभावना निर्मित हुई है ।
किन्तु जिस दिन से पाश्चात्य संस्कृति ने भारतीय मनुष्यों पर जोर किया अथवा यों कहना चाहिये कि भारतीय प्रजा ने पाश्चात्य संस्कृति को अपनाया तब से उनकी परोपकार वृत्ति की संस्कृति का स्थान स्वार्थ बत्ति की संस्कृति ने ले लिया । श्रर्थात् जहाँ अपना नुकसान करके भी दूसरों का भला करने की वृत्ति हमारे रोम रोम में बसी हुई थी, वहां अपनी स्वार्थ साधना के लिए दूसरों का संहार करना हमारा कर्तव्य है इस भावना ने स्थान प्राप्त कर लिया ।
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और जब से राजनीति का क्षेत्र राजशासन को छोड़कर सर्वव्यापी बन गया अर्थात् राजनीति प्रत्येक बालक वृद्ध स्त्रीपुरुष साधू-सन्यासी सभी में फैल गई, तब से तो 'आत्मनः प्रति कूलानि परेषां न समाचरेत्' भावना का दर्शन भी दुर्लभ हो गया है ।
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