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इससे विपरीत एक उदाहरण मुझे याद आता है । एक शहर में मेरा चातुर्मास था। वहां के एक बड़े अादमी की मृत्यु हो गई। वह दो दृष्टि से बड़ा था-सत्ता से बड़ा अधिकारी था पैसे से करोड़ाधिपति था। किन्तु जिस दिन वह मरा लोगों ने श्रीफल वगैरह मिठाइयां उड़ाई, आनन्द मनाया। मैंने कुछ लोगों से पूछा भाई यह सब क्या हो रहा है ? उत्तर मिला महाराज हमारे गाँव का पाप गया। उसने सत्ता के बल पर प्रजा को सताने में कोई कसर नहीं रक्खी और धन के बल पर कोई पाप करने में कमी नहीं रक्खी। किसी के प्रति उसने न हमदर्दी रक्खी न प्रेम किया । मुख में न मधुरता थी न पाचरण में पवित्रता । गाँव का पाप गया । सारे लोग खुशियां मनाते हुए उसके पीछे थूक रहे थे । मानव प्रकृति के इस प्रकार भिन्न भिन्न उदाहरणों को देखते हुये हमें मनोविज्ञान की दृष्टि से बहुत कुछ सोचने का अवसर मिल जाता है। डा. मिश्रा जो को हमारी संस्था की तरफ से प्राभारपत्र दिया गया, उस समय सभापति के स्थान से मुझे जो दो शब्द कहने का अवसर मिला उसमें मैंने भला करने वाली और बुरा करने वाली ऐसी दो प्रवृत्तियों का विश्लेषण किया था। मैंने कहा था संसार में मनुष्य जन्म पाकर और शारीरिक, मानसिक बौद्धिक या ऐसी ही अन्य प्रकार की शक्तियों को प्राप्त करने वाले मनुष्य अपनी शक्तियों का सदुपयोग दूसरों का भला करके और दुरुपयोग करते हैं दूसरों का बुरा करके । भला करने वाले मनुष्यों के तीन भेद हैं। वे ये हैं:
१-अपना नुकसान करके भी दूसरों का भला करना । २-अपनी हानि नहीं पहुँचाते हुये दूसरे का भला करना।
३-अपनी स्वार्थ सिद्धि पूर्वक दूसरों का भला करना। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com