Book Title: Samayik Lekh Sangraha
Author(s): Vidyavijay
Publisher: Vijaydharmsuri Jain Granthmala

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Page 67
________________ (15 कर कैसी भी ऊंची डिग्रियाँ दी जायँ किन्तु जब तक वे शिक्षक स्वयं मदाचारी, निर्लोभी, निर्व्यसनी न होंगे, तब तक वे विद्याथियों के चरित्र-निर्माण में उपयोगी नहीं हो सकेंगे। यह निर्वि वाद सिद्ध बात है । दूसरे प्रकार की शिक्षण संस्थाएँ हैं - स्वतन्त्र संस्था | जो प्रजाकीय संस्थाएं कही जाती हैं। ऐसी संस्थाओं का प्रारम्भ प्रायः आर्य समाज के गुरुकुलों से हुआ। बाद में अन्य लोगों ने अनुकरण किया । भारतवर्ष में प्राचीन समय में जो 'आश्रम' अथवा 'गुरुकुल' चलते थे, उसी का अनुकरण था - है । किन्तु समय के प्रभाव से इसमें नवीनता का भी मिश्रण हुआ है। इतना होते हुए भी, ऐनी संस्थाओं की शिक्षण - प्रणाली, बालकों का रहन-सहन, दिनचर्या आदि इस प्रकार से रखे जाते हैं, 'जिससे बालकों के 'चरित्र-निर्माण' में वर्तमान समय को देखते हुए, काफी सफलता मिलती है। ऐसी संस्थाएं एक या दो चार व्यक्ति की भावनाओं में से स्थापित होती हैं। और प्रायः देखा जाता है कि एक आध व्यक्ति की भावना से उत्पन्न होने वाले कार्य में प्रगति अच्छी होती है। क्योंकि उसको उस संस्था के ऊपर ममत्व रहता है और हर किसी प्रकार से उसको प्रगतिशील देखने की भावना रखता है । भारत सरकार के खाद्य और कृषि मन्त्री श्री के० एम० मुन्शी ने, शिवपुरी के श्रीवास्तव प्रकाशक मण्डल - संस्कृत महाविद्यालय के वार्षिकोत्सव में सभापति स्थान से प्रवचन करते हुए कहा था -- " देश में स्वतन्त्र शिक्षण संस्थाओं की प्रवृत्ति प्रणालियों द्वारा चलने की है और वे शिक्षा सम्बन्धी प्रयोगों में स्वयं प्रगति करने में असमर्थ हैं। निजी संस्थाएँ सदैव उन्नति के पथ तथा अधिक प्रगतिपूर्ण विधियों से प्रकाश डाल सकती हैं। इस प्रकार की संस्थाओं को स्थापित करना चाहिये ।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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