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ऐसी स्वतन्त्र संस्थाएं - गुरुकुल आदि में प्रायः संस्कृत का प्राधान्य रहता आया है । क्योंकि उनकी स्थापना इस भावना से ही होती हैं कि "संस्कृत भाषा ही एक ऐसी भाषा है, जो हमारी संस्कृति का रक्षण कर सकती है । "
हमारे राष्ट्रपति श्रीमान डाक्टर राजेन्द्रप्रसाद जी महोदय ने "संस्कृत के विकसित वाङमय के अध्ययन की आवश्यकता " शीर्षक एक लेख में लिखा है
" मानवजाति के सांस्कृतिक विकास का चित्र तो संस्कृत वाङ्मय की सहायता के बिना बनाया जा सकता ही नहीं ।" और भी आपने कहा हैfe
"में जा हूं कि - संस्कृत का अध्ययन, केवल हमारे लिए ही नहीं, बल्कि संसार की समस्याओं को सुलझाने में भी सहायक हो सकता है। हमारे शिक्षालयों में इसे काफी प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। जो संस्कृत नहीं जानते, वह उन्हीं बातों पर अधिक ध्यान देते हैं, जो पाश्चात्य विद्वान् कहते हैं ।"
'विक्रम' पौष २००८
कई वर्षों से संस्कृत का पठन-पाठन कम हो गया है, जो हमारे देश की सर्वव्यापी राष्ट्रभाषा थी, वह निश्चित थोडे ब्राह्मण पण्डितों की ही भाषा रह गई । और अंग्रेजी भाषा के प्रभुत्व के कारण, वह, मातृभाषा' कही जाने लगी, न उसको राज्य की ओर से प्रोत्साहन मिला, न जनता की ओर से जनता की ओर से इसलिए नहीं मिला कि संस्कृत पढने वाला श्रीमंत तो नहीं बन सकता था ।
और यही कारण था और किसी हद तक अब भी है कि ऐसी संस्थाओं से जैसे विद्यार्थी कम लाभ उठाते हैं, वैसे जनता
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