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( ५७ ) इसी प्रकार जवानी में प्रवेश करने के समय से 'सहशिक्षण' का कितना बुरा परिणाम आज तक आया है, यह कौन नहीं जानता । बड़े बड़े महापुरुषों के आश्रम भी इस 'सहवास' और 'सहशिक्षण' से टूट गए, गिर गए। सहशिक्षण की शालाओं में कैसे कैसे किस्से बनते हैं, यह किससे भविदित है ? हाँ, व्यभिचार में बुराई न समझने वाले, चाहे किसी की लड़की को चाहे कोई उठा ले जाए, उसको अनुवित नहीं समझने वाले, अंग्रेजों की नकल में ही उन्नति सममने वाले और भारतीय-संस्कृति की मजाक उड़ाने वाले महानुभाव ऐसी बातों को बुरा न समझे, तो यह और बात है। किन्तु भारतीय-संस्कृति पर जिसको अभिमान है, जो पाप को पाप समझते, हैं भलाई बराई का जिसके सामने प्रश्न है, वे ऐसी बातों कभी पसन्द नहीं कर सकते । सत्ता के बल पर, मनुष्य चाहे कुछ करले किन्तु जिसके ऊपर सत्ता का प्रयोग किया जाता हो, उसकी भावना को देखना भी एक जरूरी चीज है।
कहने का तात्पर्य यह है कि शासकीय शिक्षण संस्थाओं की शिक्षण-प्रणाली में परिवर्तन करने की सबकी भावना होते हुए भी 'चरित्र-निर्माण के लिए जो परिवर्तन. होना आवश्यक है, वह नहीं होता अथवा विचार भिन्नतामों के कारण से नहीं किया जाता है। __दूसरा प्रश्न शिक्षकों का है । योग्य शिक्षकों के प्रभाव से भी शिक्षण संस्थाएँ सफल नहीं होती। हालांकि, शासन की ओर से योग्य-शिक्षक उत्पन्न करने के लिए 'टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज' खोले जा रहे हैं किन्तु पुस्तकों का पाठ्यक्रम पूरा करने के अतिरिक्त उन शिक्षकों में चरित्र-योग्यता का क्या नियम रखा जाता है, यह मालूम नहीं है ? पाठ्यक्रम कितना भी ऊँचा रख Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com