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सकती है और न सामाजिक । उन्हें न किसी चीज के लिए मोह ममत्व और इच्छा होती है, न वे किसी चीज के लिये लालायित होते हैं, न वे किसी दूसरे को दुःख देते हैं । उनका जीवन तो शांतिमय होता है ।
दूसरा धर्म गृहस्थ धर्म है। गृहस्थाश्रम में रहने वाले को खुद की, कुटुम्ब की, समाज की और राष्ट्र की रक्षा के लिए सभी चीजों की आवश्यकता होती है । किन्तु गृहस्थ समाज अपनी आवश्यकताओं की मर्यादा में रहकर अपना जीवन व्यतीत करे. तो उसके निमित्त से दूसरे को दुःख होने का कोई कारण नहीं रहता | स्वार्थ और लोभ यही तो स्वयं को और दूसरों को दुख का कारण होता है। और भगवान महावीर स्वामी ने इसीलिये गृहस्थों को, अपनी आयश्यकता की पूर्ति भी हो जाय और दूसरों को दुःख देने का भी कारण न बने, ऐसा मध्यम मार्ग दिखलाया । और वह यह है कि हर एक चीज में गृहस्थ अपनी आवश्यकता को सोच कर मर्यादा निश्चित करे । जिससे दूसरों का हक भी न मारा जाय, दूसरे भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें और हमारे निमित्त से दूसरों को तकलीफ भी न हो । अर्थात् मानव-जाति में समानता उत्पन्न हो जाय और जहाँ समानता है, वहाँ विषमता नहीं रहती और विषमता के अभाव में घर्षण का भी कोई कारण नहीं रहता ।
भगवान महावीर ने गृहस्थों के बारह व्रत दिखलाये हैं । उसपर सूक्ष्मता से विचार किया जावे तो, यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि मानव जाति में समानभाव - साम्यवाद उत्पन्न करने का ही इसका मूल हेतु था । प्रत्येक व्रत में भगवान महावीर ने मर्यादा रखने को कहा है। जहाँ मनुष्य मर्यादा में आ जाते हैं, वहाँ अतिरेक नहीं होता और अतिरेक नहीं होने से न खुद में
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