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परिमाण भी इसलिए है कि आवश्यकता से अधिक किसी भी चीज का संग्रह करना मनुष्य के लिए अनुचित है। इस संग्रहशीलता का ही परिणाम है कि, संसार में असमानता फैली हुई है और असमानता के परिणाम से सारे संसार में अशान्ति है और क्लेश हो रहा है। इसलिए भगवान महावीर ने परिग्रह का परिमाण प्रत्येक गृहस्थ को करने का उपदेश दिया । हर एक गृहस्थ अपनी आवश्यकताओं को सोचकर के यह नियम करे कि मुझे इस से अधिक द्रव्य नहीं रखना। मगर अधिक द्रव्य हो भी जाय, तो उस द्रव्य को जनता की सेवा में लगा दूंगा। ऐसा करने से अनायास उस द्रव्य का लाभ दुसरों को मिल जाता है। मर्यादित द्रव्य रखने को प्रतिज्ञा से उसकी लोभवत्ति भी कम होती जाती है
और मर्यादित बन जाती है। मर्यादित बनने से द्रव्य प्राप्ति के हेतु जो पापाचरण मनुष्य को करने पड़ते हैं, उससे वह बच जायगा। परिग्रह के परिणाम में न केवल द्रव्य का ही परिमाण करने का है किन्तु चल अचल सभी प्रकार की वस्तुओं का परिमाण करना है। इसलिये अन्य चीजों का संग्रह भी नहीं हो सकेगा। ____ इस प्ररिग्रह परिमाण की पुष्टि के लिये ही, छटा और मा. तवां ब्रत भी है । अर्थात् गृहस्थ यह प्रतिज्ञा करे कि मुझे प्रत्येक दिशा में अमुक हद्द से अधिक व्यापारार्थ न जाना और न कोई व्यापार करना । मनुष्य की मनोवृत्ति इस व्रत से कितनी विशुद्ध रहती है, इस का अनुमान कोई भी विचारशील मनुष्य कर सकता है । जब हमें आवश्यकता से अधिक द्रव्य की जरूरत ही नहीं है तो फिर दुनिया में भटकने से क्या मतलब है ? बेशक ज्ञान प्राप्ति या धर्म प्रचारार्थ कोई भी कहीं भी जा सकता
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