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। दाता ।
हारी प्राणी पानी, दूध आदि प्रवाही पदार्थ जीभ से ही लेते हैं
ओंठों से नहीं। जबकि निरामिष भोजी प्रारमी प्रवाही पदार्थ होठ से ग्रहण करते हैं। इस प्रकार प्रत्येक जीव को अपनी खुराक के पाचन के लिए एक जठर बना रहता है, जिसकी उष्णता से पाचन होता है। यह वैज्ञानिक सिद्ध बात है कि माँसाहारियों का जठर इतना उष्णतायुक्त है कि जो मांस जैसे भारी पदार्थ को भी हजम कर सकता है, फलाहारी भोजियों का जठर वैसा नहीं होता।
इस प्रकार शारीरिक रचना से भी विचारपूर्वक देखा जाय तो मानव जाति के लिए मांसाहार स्वाभाविक खुराक नहीं है।
संसार के और प्राणी जिनका मांस यह स्वामाविक खुराक नहीं है, उन प्रारिमयों ने अपने स्वभाव को नहीं बदला। चाहे वह किसी भी दशा में हों पर वे मांसाहार नहीं करते और इसी से उन्होंने अपनी सात्विकता को कायम रखा है।
मानव जाति भी मांसाहारी नहीं थी किन्तु जैसा कि मैं ऊपर कह चुका हूं, जैसे मानवजीवन का विकास हुआ. बुद्धि बल बढ़ा, वैसे वैसे उसमें स्वाथ, लोभ की मात्रा अत्यन्त बढ़ गई। परिणाम यह हुआ कि उसने अपनी शक्ति का उपयोग, हीन शक्ति वालों पर अत्याचार करने में किया और यही कारण है कि धीरे-धीरे प्रकृति से विरुद्ध, कुदरत से खिलाफ उसने व्यवहार शुरू किया और इसी लोभ लालच के कारण उसने माँपाहार शुरू किया। इसका परिणाम यह पाया कि मनुष्य का हृदय कि जहां ईश्वर का स्थान माना जाता है, उसको उसने जीवों का कब्रस्तान बनाया। जिस चीज को छूने से मनुष्य स्वयं को अपवित्र समझता था, उसी चीज को पेट में डालकर
अपने को पवित्र भी सममने लगा। इसके अतिरिक्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com