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रहने के लिये यह व्रत दिखलाया है । इसका आशय भी स्पष्ट है कि मानव सब के साथ में समान बुद्धि रक्खे, साम्यभाव रक्खे |
समस्त
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इसके अतिरिक्त सामायिक, देशावकाशिक, पौषध और अतिथिसंविभाग भी आध्यात्मिक बल उत्पन्न करने और त्यागवृत्ति बढ़ाने के हेतु हैं । गृहस्थ दिन के चौबीस घंटों में से कुछ समय ऐसा निकाले कि जिस से एकांत में बैठकर संसार के जीवों के उपर साम्यवृत्ति धारस करे और केवल आत्मचिंतन करे | यह सामायिक वृति का हेतु है | महिने पंद्रह दिन में गृहस्थ कभी एक दिन सर्वथा साधुवृत्ति का भी अनुभव करे। ताकि उसकी मनोवृत्ति सर्वथा त्यागवृत्ति की तरफ झुकती जाय । इसलिये पौषध व्रत दिखलाया गया है । साधु सर्वथा त्यागी है और गृहस्थ मर्यादित त्यागी है । किन्तु कभी न कभी मर्यादा को त्याग वृत्ति छोड़कर वे सर्वथा त्यागी होना ही आत्मकल्याण का सर्वोत्कृष्ट मार्गं है। क्यों कि त्याग जैसे अपनी लोभवृत्ति को कम करने का हेतु है, वैसे दूसरे को भी सुखी बनाने का हेतु है । इसलिये सर्वथा त्यागी होना यह भी एक आवश्यक और महत्व का कर्तव्य है । इसी प्रकार देशावकाशिक व्रत भी दिशाओं संबंधी दैनिक प्रवृत्ति को मर्यादित बनाने के लिये दिखलाया गया है । अन्त में बारहवां व्रत अतिथिसंविभाग है । गृहस्थ अपने खान पान की प्रत्येक चीज में से दूसरे का हिस्सा निश्चित करे और वह हिस्सा उन महानुभावों को दे कि जो अतिथि हैं। जिसका कोई घर बार नहीं, जिनकी कोई सम्पत्ति नहीं, जिनकी कोई तिथि और पत्र भी नहीं। ऐसे महात्मा, जिनका पूरा समय जगत के कल्याण के लिये व्यतीत होता है और जो अपने वैयक्तिक स्वार्थी का त्याग करके जगत कल्याण के लिये अपना
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