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हमारे ऋषि महर्षियों ने गृहस्थों के लिए जो हिंसा का त्याग दिखाया, वह इस प्रकार बतलाया:
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नीरागस्त्र जन्तूनां हिंसां संकल्प तस्त्यजेत्
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निरपराधी, त्रम जीवों की हिंसा को इरादा पूर्वक त्याग करें । इस व्याख्या में गृहस्थाश्रम को चलाते हुये, जीवन-निर्वाह करते हुये, देश और राष्ट्र की रक्षा करते हुये भी मनुष्य बहुत हिंसा से बच सकता है ।
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वस्तुतः देखा जाय तो निरपराधी छोटे या बड़े किसी भी जीत्र को कष्ट पहुँचाना यह अन्याय है । हम बड़े हैं, हम में शक्ति है, इसलिए किसी भी छोटे जीव के ऊपर हम हर प्रकार का अत्याचार कर सकते हैं, ऐसा समझना मानवता से नीचे गिरना है । आज मानव जाति अपने स्वार्थ के लिए अपनी शक्ति का कितना दुरुपयोग कर रही है, यह कहने की आवश्यकता नहीं है । भारतीय शासनाधिकारी, मानव जाति की रक्षा के हेतु पश्चिम का अनुकरण करके, हिंसो जन्य जो प्रयोग कर रहे हैं, बह भारत को संस्कृति के विरुद्ध हैं। इतना ही नहीं, किन्तु प्रकृति के नियमों से भी विरुद्ध होने के कारण, जितना हम सुख के लिए प्रयत्न करते हैं, उतना ही अधिकाधिक दुख हमारी मानव जाति पर श्राता हो रहा है। दूसरे जीवों का संहार कर के, हम स्वयं सुख कभी भी नहीं पा सकते । यह प्रकृति का अटल नियम है । जहाँ जहाँ जितनी २ हिंसा अधिक, वहाँ वहाँ प्रकृति ने, भूकम्प, बाढ़, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, लड़ाई, रोग, अग्निप्रकोप आदि अपने शस्त्रों द्वारा दण्ड दिया है। पश्चिम का अनुकर म करके भारत में जितनी हिंसा बढ़ रही है, उतना ही दुख का दावानल सर्वत्र फैल रहा है ।
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