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सांतवा भोगोपभोग व्रत भी इसी के अनुसन्धान में है । इस व्रत का आशय यह है कि मनुष्य के उपयोग में आने वाली प्रत्येक चोज की मर्यादा प्रतिदिन गृहस्थ करे । संसार के सारे पदार्थ, जो मनुष्य के उपयोग में आते हैं, वे दो प्रकार के हैं । १. भोग्य और २. उपभोग्य जो चीज एक दफे उपयोग में लाने के पश्चात् दूसरी बार उपयोग में नहीं आती, वह भोग्य है । अन्न, पानी, विलेपन आदि चीजें एक दफे उपभोग में लाने के पश्चात् दूसरी बार उपयोग में नहीं आती जो चीज एक से अधिक बार उपयोग में आती हैं, वे उपभोग्य वस्तुयें हैं, जैसे मकान, वस्त्र, आभूषण इत्यादि । इन भारी चीजों का गृहस्थ प्रतिदिन नियम करे कि वह चीज मुझे दिन में कितनी बार और कितने प्रमाण में उपयोग में लाना है। यहां तक कि आसन, सवारी, स्नान, विलेपन, मुखवास इत्यादि प्रत्येक चीज कम से कम उपयोग में लाने का लक्ष्य रखकर के प्रातःकाल में उठते ही प्रतिज्ञा करे ।
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देखने में कई लोगों को विचित्र सा मालूम पड़ेगा किन्तु मनोविज्ञान की दृष्टि से यदि विचार किया जाय तो यह एक आध्यात्मिक बल प्राप्त करने का जबर्दस्त सिद्धान्त है । मनोवृत्ति पर काबू रखने के लिये, सच पूछा जाय तो वह एक योग क्रिया है । और इस से न केवल अपनी आत्मा को किन्तु दूसरों को भी बड़ा भारी लाभ पहुँचता है । इसी प्रकार आठवां व्रत अनर्थ दंड विरमण व्रत है । संसार में मनुष्य ऐसी बहुत सी क्रियायें करता है जिससे निरर्थक खुदको पापका उपार्जन होता है और दूसरे जीवों का नाश होता है। अनावश्यक प्रवृत्तियों को करना कहां की बुद्धिमता है ? इसीलिये भगवान महावीर ने ऐसी निरर्थक उपद्रवकारी, दूसरों को सतानेवाली प्रवृत्तियों से दूर
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