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आदि अनेक खेलों के भौर मनोविनोद के माधनों के रहते हुए भी, आज का विद्यार्थी शारीरिक और मानसिक शक्तियों में इतना निर्बल रहता है कि जिसके वास्तविक स्वरूप को देखने से नया उपन्न होती है। शारीरिक व मानसिक निर्बलताओं में आजकल के वैषयिक प्रलोभन भी कारण हैं, जिनसे उनकी मनोवृतियाँ शिथिल सत्व-विहीन रहती हैं।
४-इसी विषय के साथ संबंध रखने वालो बात पाठ्यग्रन्थों की भी है । पाठ्यग्रन्थ भी उम्र और बुद्धि को लक्ष्य में रखकर के निर्धारित किये जाने चाहिए। पुस्तके, यह विद्यार्थियों के लिए रात दिन के साथी हैं । इसलिए पुस्तकें ऐसी होनी चाहिए जिनसे कि विद्यार्थियों को चरित्र निर्माण में अधिक सहायता मिल सके। अक्मर देखा गया है कि सातवीं कक्षा तक पहुँचे हुए विद्यार्थियों को न तो शद्ध पढ़ना ही आता है, न शुद्ध और सफाई से लिखना । इसके कारण में पढ़ाने वाले की न्यूनता हो सकती है किन्तु बद्धि और उम्र का ख्याल न रखते हुए पाठ्य. ग्रन्थों का निर्धारित किया जाना भी एक कारण जरूर है। परिणाम यह होता है कि प्रारम्भ में जो कच्वा पन रह जाता है, वह ठेठ तक चालू रहता है। मैंने ऐसे हिन्दी 'विशारद'
और 'रत्न' उत्तीर्म हुए महानुभावों के पत्र देख हैं, जिनके अक्षर साफ सुथरे नहीं; इतना ही नहीं, हस्व-दीर्घ की भी भूलें बहुत पाई गई। इसका कारण यही है कि प्रारम्भ से ही यह कच्चाग्नं रहा हुपा होता है इसलिए पाठ्यक्रम की पुस्तकें और
उनका अनुक्रम इस प्रकार से होना चाहिए जिससे विद्यार्थियों - का ज्ञान दृढ़ हो जाय और वे भविष्य में किसी को 'किन्तु'
कहने का कारण न हो सकें।
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