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है । जो कुछ अशान्ति, दुःख और न्यूनता देखी जाती है वह तो कुछ लोगों के लोभ, ईा, द्वेष, अनुभव-हीनता, स्वाथ-सिद्धि
और जीवन को आदर्शिता के अभाव के ही कारण है । यदि ये बातें न होती तो, तीन वर्षों में ही भारत-वप सच्चा स्वर्ग वन जाता।
फिर भी हमें निगशा छोड़कर हमरी पाठशाला, विद्यान्य, महाविद्यालय आदि शिक्षण संस्थाओं में अध्ययन करने वाले विद्यार्थी और विद्यार्थिनियों के चरित्र-निर्माण के लिए प्रयत्न अवश्य करना चाहिए।
क्या करना चाहिए ! १-विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण के लिए, जैसा कि मैं ऊपर लिख चुका हूं, वातावरण शुद्ध न किया जाय तब तक कोई भी प्रयत्न, जैसा चाहिए, वैसा सफल नहीं होगा। इसलिए चरित्र निर्माण में जो-जो विघातक बातें हमारे देश में प्रचलित हों, ऐसी बातों को समूल नष्ट करना चाहिए । जैसे कि सिनेमा', शृङ्गार-रसपोषक पुस्तके, समाचार-पत्रों में छपने वाले वीभत्मविज्ञापन, मासिक, साप्ताहिक आदि पत्रों में छपने वाले बीभत्स चित्र प्रादि जो-जो बातें चरित्र को पतित करने वाली हों, उन्हें सरकार को चाहिए कि बन्द कर दें। अभी-अभी ऐसा सुनने या पढ़ने में आया है कि सरकार ने अमुक उम्र तक के बालकों को 'सिनेमा' देखने का प्रतिषेध किया है किन्तु विष तो विष ही होता है, छोटों के लिए और बड़ों के लिए भी। जब हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि बड़ों के गुण अवगुण का प्रभाव छोटों पर भी पड़ता है तो फिर जिस विष की छूट बड़ों को दी जाती है, उस विष का प्रभाव छोटों पर नहीं पड़ेगा यह कैसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com