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में महात्मा गांधी जी की अहिंसा, सत्य और प्रेम पर तालियां पिटवाते हुए भी मांसाहार छूटे नहीं, शराब छूटी नहीं, अण्डे छूटे नहीं, कोट, पतलून, टाई, कालर छूटे नहीं, सिगरेट छूटे नहीं, अर्थात् साहेबशाही छूटे नहीं, यह किसका प्रताप है ? संक्षेप में कहा जाय तो — चरित्र निर्माण की पुकार करते हुए भी चरित्र निर्माण के विधानक हमारा खुद का आचरण हो बल्कि, चरित्र निर्माण की विघातक प्रवृत्तियों को उत्तेजन दिया जाय, इससे चरित्र निर्माण की सिद्धि कभी सिद्ध हो सकती है क्या ? विशेष दुःख की बात तो यह है कि जो बातें हमारी भारतीय संस्कृति से विपरीत हैं- हानिकारक हैं- हानि प्रत्यक्ष दिखाई दे रही है, फिर भी उस पाश्चात्य संस्कृति की देन को हम अच्छा समझ कर, दूसरों से भी अच्छा मनवाने का प्रयत्न करते हैं । यह देश का दुर्भाग्य नहीं तो और क्या कहा जा सकता है ?
विद्यार्थियों का चरित्र-निर्माण
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मुझे तो यहाँ हमारी शाला, विद्यालयों, महाविद्यालयों आदि शिक्षरम-संस्थाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थी तथा विद्यार्थिनियों के चरित्र-निर्माण के विषय में कुछ कहना है। क्योंकि देश की, समाज की और वास्तविक मानवधर्म की भावी उन्नति का आधार उन्हीं के ऊपर है। वे ही सच्चे नागरिक बनकर भारतवर्ष को, जैसा पहले था, दुनियां का गुरु बना सकते हैं । और उसका सर्व आधार उन्हीं के 'चरित्र-निर्माण' पर रहा हुआ है । शिक्षण, यह तो चरित्र निर्माण के साधनों में से एक है। हमारा मुख्य ध्येय तो चरित्र-निर्मास का है । 'बी० ए०' हों चाहे न हों 'एम० ए० ' ' एल० एल० बी०' हो चाहे न हों 'पी० एच० डी०' 'डाक्टर' 'कलेक्टर' 'एडीटर' 'ओडिटर' 'कन्डक्टर' 'बेरिस्टर, '
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