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प्रेमी-अभिनदन-ग्रंथ १४ भी कुछ किया, 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' को श्राप जैमा कुछ देखते हैं, उसमे अगर यह कहा जाय कि दादा की अपेक्षा मेरी माँ का अधिक हिस्सा है तो शायद कुछ ज्यादा अतिशयोक्ति न होगी । पुरुष कितना ही त्याग-वृत्ति का हो, मेवापरायण और कर्तव्यनिष्ठ हो, पर अगर स्त्री अपने पति के व्रत को अपना व्रत नहीं बना लेती तो अवश्य ही उस पुरुप -- का पतन होता है। कार्लमार्क्स कितने ही मिद्धान्लवादी होते, पर उनकी पत्नी लोभी, विलासेच्छ होती तो वे कभी के पूंजीवादियो के मायाजाल में फंस जाते । बडे-बडे होनहार देश-भक्तो, त्यागियो और महापुम्पो का पतन उनकी . पत्नी के अपातिव्रत्य के कारण ही हुआ है । अपने पति के व्रत को वे अपना व्रत न मान राकी।
जब कभी हम लोग फुर्सत के वक्त दादा के पास बैठते है तब वे अपने जीवन की स्मरणीय घटनाग्रो और बातो को कहते है । उनको सुनने और उन पर विचार करने पर हमें मालूम होता है कि उनके चरित्र और स्वभाव के फिन गुणो ने उन्हें आगे बढाया और उस कार्य के करने के लिए प्रेरित किया और किन परिस्थितियो ने उगमे मदद पहुंचाई।
दादा की बातो में सबसे पहली वात जो ऊपर तैर पाती है वह अत्यन्त दरिद्रता की है। दादा के पिता अर्थात् मेरे आजे का नाम था टूडे मोदी। हम लोग देवरी जिला सागर (मध्य प्रान्त) के रहने वाले परवार वनिये है। परवार लोग अपने मूल मे मेवाड के रहने वाले थे। पहले हथियार वाँधते थे, पर वाद में और बहुत-गी क्षनिय जातियो की तरह व्यापार करने लगे और वैश्य कहलाने लगे। पुराने गिला-लेखो मे इस जाति का नाम 'पौरपट्ट' मिलना है और ये मेवाड के पुर या पौर कमवे के रहने वाले है और सारे बुन्देलपड मे वहुतायत से फैले हुए है। मगर हमारे आजे टूडे मोदी महाजनो मे अपवाद-रूप थे। अपनी हार्दिक उदारता के रावव वे अपने प्रासामियो री कर्ज दिया हुआ रुपया कभी वसूल न कर सकते थे और किसी को कष्ट मे देखते थे तो पारा मे रुपया रखकर देने से इन्कार न कर मकने थे। इस कारण वे अत्यन्त दरिद्रता के शिकार हो गये । देखने को हजारो रुपये की दस्तावेजे थी, पर घर मे याने को अन्न का दाना नहीं था। दादा सुनाते है कि बहुत दिनो तक घर का यह हाल था कि वे जव घोडे पर नमक, गुड वगैरह मामान लेकर देहात मे बंचने जाते थे और दिन भर मेहनत करके चार पैमे लाते ये तब कही जाकर दूसरे दिन के भोजन का इन्तजाम होता था। वे कर्जदार भी हो गये थे। एक वार की बात है कि घर में चूल्हे पर दाल-चावन पक कर तैयार हुए थे और मव खाने को वैठने ही वाले थे कि साहूकार कुडकी लेकर आया । उगने वमूली में चूल्हे पर का पीतल का बर्तन भी मांग लिया। उससे कहा कि भाई, योडी देर ठहर। हमे खाना मा लेने दे। फिर वर्तन ले जाना। पर उसने कुछ न सुना। वर्तन वही राख मे उडेल दिये । खाना राव नीचे गाव मे मिल गया और वह वर्तन लेकर चलता वना। सारे वाटुम्ब को उस दिन फाका करना पड़ा।
__ ऐसी गरीवी मे गाँव के मदरसे मे दादा पढे, ट्रेनिंग की परीक्षा पास की और मास्टरी की नौकरी कर ली। वे कई देहाती स्कूलो में मास्टर रहे। मास्टर होने के पहले कुछ दिन उन्होने डेढ रुपया महीने की मानीटरी की नौकरी की। मास्टरी में उन्हें छ रुपया महीना मिलता था। वाद में सात रुपया महीना मिलने लगा था। इसमे से वे अपना खर्च तीन रुपये मे चलाते थे और चार रुपया महीना घर भेजते थे। इन दिनो जो कम-खर्ची की यादत पड़ गई, वह दादा से अभी तक नहीं छूटती। एक तरफ तो उनमें इतनी उदारता है कि दूसरो के लिए हजारो रुपये दे देते है, पर अपने खर्च के लिए वे एक पैसा भी मुश्किल से निकाल पाते हैं। अन्य गुणो के साथ मिलकर इस आदत का असर 'हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर' के सचालन पर भी गहरा पड़ा है। कितावो की बिक्री का जो भी कुछ पैमा पाता रहा, वह कुछ व्यक्तिगत खर्च निकाल कर नये प्रकाशनो में ही लगता गया। वम्बई के जीवन का बहुत बडा हिम्सा उन्होने दस-बारह रुपये महीना किराये के मकानो में ही निकाल दिया है, जब कि उनकी हालत ऐसी थी कि खुशी से पचास रुपया महीना किराया खर्च कर सकते थे। इस आदत के कारण ही उन्हें कभी किसी अच्छे ग्रन्थ को छपाने के लिए, जिमकी कि वे आवश्यकता समझते हो, रुपयो का टोटा नही पडा और न कभी भाज तक कर्ज़ में किसी का पैसा लेकर धन्धे में लगाया। कभी किसी प्रेस वाले का या कागज़ वाले का एक पैसा भी उधार नहीं रक्खा। यही पादत उन्हे सभी किस्म के व्यसनो से और लोभ से भी बचाये रही। सट्टेवाज़ मारवाडियो के बीच रहकर भी हमेशा वे सट्टे के प्रलोभन