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...मूल सिद्धान्त जिसपर श्रीजनेन्द्रकुमारने इस पुस्तकके सारे प्रशाका उत्तर देनकी चष्टा की है, शायद एक ही है और वह है अहिंसा । नानव-मंसाग्म जो जो प्रश्न उत्पन्न हो सकते है, उनका हंसाके व्यवहारसे किस तरह हल किया जा सकता है. और विरोवाका किस तरह समन्वय केया जा सकता है, इसका उत्तर देनकी भी जैनेन्द्रजीकी इस पुस्तकम कोशिश है।
मकिन है कि इस पुस्तकम बताये हा उत्तर सब जगह योग्य साबित न हो। प्रश्नामे जीवनम उंठ हुए प्रत्यक्ष प्रसंगांकी अपेक्षा तर्कसं मांची हुई समस्यायं अधिक है; इमलिए उत्तराम भी जीवनके अनुभवकी
पक्षा तर्कम ही काम लेना पडा है। जब वैसा मुआममा उपस्थित हो; तब, अहिंसाक सिद्धान्तपर चलते हुए भा, समम्याआके प्रत्यक्ष मुलझानके मार्गका इसम बताये हए मार्गसे भिन्न होना संभव हैं। मैं मानता हूँ कि स्वय गखक भी यह दावा न करंगे कि उनके उत्तरीम फर्क होनेके लिए गुंजाइश ही नहीं है। इसलिए पाठक इन उत्तरीको श्रीजनेन्द्रकी निश्चित स्मृति या शासनक रूपमे न लें। लेकिन इन प्रश्नोपर अहिंमार्की दृष्टि से विचार करनेक एक मार्नासक प्रयत्नक रूपमें ले।
समाजशास्त्र (साशियालाजी) और तदन्तर्गत राजनीति, अर्थशास्त्र, साम्यवाद, गांधीवाद आदि शाम्रोंके अभ्यासियोको यह पुस्तक विचारणीय मालुम होगी। श्रीजैनेन्द्रजीने जीवनक लगभग सभी प्रश्नापर कुछ न कुछ उत्तर इनमें दिये हैं। सब उत्तर सहीं हो या न हो, या उसपर सहमति हो या न हो. जैनेंद्रजी क्या कहते हैं यह जानना पाठकों के लिए जरूर लाभदायक होगा।
वर्धा 2 दिसंबर १९२८ किशोरलाल घ० मशरूवाला
[ सुप्रसिद्ध विचारक और गाँधी-सेवा-संघके अध्यक्ष ]