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किन्तु इससे यह न समझना चाहिए कि उनमें परस्पर कोई संबंध नहीं है. क्योंकि संबंधका अभाव तो उन्हींम क्या जीवनकी किन्ही भी दो वस्तुआमे असंभव है। हाँ, किसी प्रस्तुत सिद्धान्तके प्रतिपादनमे जो नक्श-बंदी की जाती है, वह यहाँ नहीं है । वे तो प्रश्न ह और अलग अलग हैं तो इसाला कि वे अवश भावसे बिना क्रमकी प्रतीक्षाके दिमागकं जीवनके पर्दसे चहर्कत और उठते हैं। और यदि वे किसी एक सूत्रस संबंधित है, तो वह भी इसलिए कि वे सब उसी एक जीवन-जिज्ञासामस उठते है और हमारे व्याक्त-वैमत्यको गार कर किसी एक ही समन्वय सत्यकी खोजस प्ररित होते है । मैं तो कहेगा, जहाँतक इस प्रस्तुत पुस्तकक प्रश्न, किनी अनिवार्यताने मेर या अन्य प्रश्न-कताआके दिमागम जागे है, चाहे वे फिर कंस
नी असंबद्ध प्रांत होत हो, अमलमं वहीं तक प्रयोजनकी सिद्धि हुई है। और इसके विपरीत जहाँ तक किमी पूर्व विचार या सिद्धांतका लक्ष्य कर प्रश्नांका आयोजन हुआ है, वहाँ तक मानना चाहिए कि लक्ष्यकी सिद्धि नहीं हर है. और बादिका विलास होकर रह गया है।
प्रस्तुत पुस्तक के प्रकरणाका बावत भी बाकार करना होगा कि प्रश्न समाप्त होनके अनन्तर कंवल पाठकोंकी सविधाक लिए प्रश्नान्तर्गत विषय-वैषम्यको देखकर
और कुछ अनुपातका ध्यान रखकर परिच्छदाका विभाग किया गया है। इसीलिए किसमें गठनकी एकता नहीं है और किन्हीम इतना माम्य है कि उनका विभक्त किया जाना अन्याय-सा प्रतीत होता है । इसके अतिरिक्त कुछेकको बहुत छोटा, और कुछेकको बहुत बड़ा छोड़ देनेकी लाचारी हुई है । __यह तो प्रश्न और उनके कारण पुस्तकक विधि-प्रकारकी बात हुई। किन्तु पुस्तकके मुख्य पराधा अर्थात् उलग्दाताके बारेमें भी अपना दृष्टिकोण व्यक्त करना शायद मेरे लिए आवश्यक है। यदि मै ठीक समझा हूँ तो उनके लिए भी में कहूँगा कि उत्तर उन्होंने प्रस्तुत नहीं किय हैं, बल्कि वे प्रस्तुत हुए है । यह कहनेका मेरा मतलब उस अनायास भारस है जिससे वह उनसे प्राप्त हुए हैं। लेकिन इससे यह न ममझना चाहिए कि जनेन्द्रजी काई बड़े पण्डित हैं या बहुत अभ्यासी हैं, अथवा बहुश्रुत हैं । नहीं, एक आर अनायासता भी है जो कि पांडित्य और अभ्यासकी बातको विल्कुल भूलकर संभव बन उठती है। अर्थात् , जब कि व्यक्ति किसी समस्याका हल पश करनेका दाना या दायित्व लेकर नहीं बैठता है, बल्कि उसके प्रति केवल अपनेको व्यक्त करता है । जिस समाज, जिस राष्ट्र अथवा दुनियाम वह रहता है, उसके