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भूमिका
इन प्रश्नों के प्रश्न-कर्ताआम में भी एक हूँ। इसीस मुझपर उस बारेमें कुछ कहनेका भार और दायित्व आता है। वह भार और अधिकार अपेक्षाकृत मुझपर अधिक है क्योंकि एक तो इस पुस्तकका आरंभ ही मुझसे हुआ है, दूसरे उसके अधिकांशमें मेरे ही किये हुए प्रश्न हैं। इसलिए मुझे योग्य है कि प्रश्नकर्ताके नाते मैं अपनी और परोक्षतः उन अन्यकी बात पाठकोंको कहूँ। ___ सबसे पहले शायद मुझे बताना चाहिए कि मै प्रश्न-कर्ता क्या बना ? जैनेन्द्रजी स्वयं लेखक हैं और इस विषयकी पुस्तक भी वे एक या अनेक स्वयमेव लिख मकते थे। फिर किस लिए यह प्रश्नोत्तरका आडंबर ?
हाँ, पुस्तक वह प्रश्नांके बिना लिख सकते थे। लेकिन क्या यह भी स्वाभाविक नहीं है कि इस जीवनके संबंधमें किसीके अपने कुछ प्रश्न हो और वह उनका उत्तर किसी लेखकहीसे सुनना चाहे ? लेखकका लेखन-कार्य जीवन या प्रश्नांके उत्तर-प्रत्युत्तर स्वरूप ही संभव बनता है । सो वैसे प्रश्न, मैं समझता हूँ, हरेकके साथ लगे रहते हैं और उनका उत्तर एक लेखकसे उपयुक्तताके साथ माँगा जा सकता है। बस यही स्थिति समझिए जहाँ कि इस पुस्तककी जड जमी। जैनेन्द्रजीस मेरा सम्पर्क हुआ और प्रश्नोत्तरका मौका मिला । आखिर एक दिन यह भी सझा कि ये प्रश्नोत्तर लेखनीबद्ध ही क्यों न किये जायँ जिससे बहुतोको नहीं तो कमस कम मुझ-जैसे व्यक्तियोंको विचारार्थ कुछ मिल सके। ___ इस ढंगसे यह पुस्तक बनी और ऐसी ही इसमे विशेषताएँ आ गई हैं : एक जैसे यही कि उसके विषय-विस्तार और विकासम कोई निबंधात्मक क्रम नहीं देख पड़ता। आरंभ और अंत उसका जिस प्रकार हुआ है उसके पीछे कोई बाहरी सोचविचार नहीं है। जो प्रश्न सबसे आगे आया, उसीसे आरंभ बन गया और जहाँ आकर प्रश्नोंका तारतम्य और सूत्र रुक गया वहाँ स्वभावतः अंत हो गया। समचा पुस्तकहीके बारेमें यह सच नहीं है, बल्कि उसमें आये सभी विषय-प्रसंग उसी प्रकार एकके बाद एक उठते और चलते गये हैं।