Book Title: Prastut Prashna
Author(s): Jainendrakumar
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 12
________________ प्रति उसकी अपनी भावना है-एक जीवित आस्था है। और जब कोई समाज, राष्ट्र और दुनियाका प्रश्न उसके सामने आता है तो उत्तरमं जैसे शुद्ध प्रतिक्रिया-स्वरूप उसके अंतरसे वही भावना व्यक्त हो जाती हैं। वह तो भावनाका वाहक है। किन्तु वह भावना क्या है, यह वह स्वयं नहीं जानता। वह निर्गुण ( =without attributes ) और अपरिभाष्य ( =ivithout definition ) है। वह कोई बुद्धिगत वाद या सिद्धान्त भी नहीं है जिसे खड़ा करनेके लिए उस युक्तियोंके चुनावका प्रयास करना पड़े । नहीं, भावनाशील व्यक्ति कोई सत्यका अटल स्तंभ खड़ा करनकी कोशिश नहीं करता है और न युगायुगान्तर उसकी रक्षाके लिए उसके चारों ओर कोई तर्कका किला बनानेकी उस चिन्ता होती है । न उसे किसी क्षण यह चिन्ता होती है कि उसकी बातको अन्य लोग मान ही। और इसीलिए उसके उत्तरमें क्या, समस्त जीवनमें यदि वह भावना प्रधान है तो अनायासता रहती है। एसी कुछ अनायासता जैनेन्द्रजीके उतर देते समय मने अनुभव की। इसीलिए पाठकोसे में निवेदन कर देना चाहूँगा कि वे उन उत्तराको इसी पहलंस पानेकी कोशिश करे। उस कोशिशमं यह ध्यान तनिक न होना चाहिए कि उन्हें किसी बातको माननेके लिए बाध्य किया जा रहा है क्योंकि वह स्वयं ही उनसे अपनको परिबद्ध नहीं समझत हैं। बल्कि समझना चाहिए कि यह उनकं कुछ क्षणोंकी अभिव्यक्ति है जो किन्हीं प्रश्नाके उत्तरमें उस उपलक्षसे हुई है। फिर भी यदि अनायास पाठकके हृदयमें प्रश्नाके उत्तर जगह लेने चलें तो दूसरी बात है। इसीसे हो सकता है कि उत्तरोंम यहाँ-वहाँ युक्ति और तर्कका उल्लंघन अथवा आदि और अंतके दरम्यान संयुक्तता और शृंखलाकी कमी भी दीख पड़े । लेकिन इस प्रकारकी सँकरी सुसंगताको विशेष महत्त्व नहीं दिया जाना चाहिए, बल्कि शब्दांक परोक्षमें उस चीजको देखना चाहिए जो कि यदि है, तो वही असलियत है। -हरदयाल

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