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अभ्यस्त किया जा सके, महापुरुषो की तो यही निर्मल भावना रही है। इसके सहारे पहले परमात्मा में बहुमान और अनुराग बढता है, फिर धीरे-२ मनुष्य उनके शुद्ध गुणो मे ओत-प्रोत हो विषयो से हटने लगता है। इस रुचिकर अवलम्वन से; रुचि न रखने वालो अथवा बहुत कम रुचि रखने वालो मे भी, शुद्ध गुणो मे रुचि उत्पन्न हो जाती है और मनुष्य सत्पथगामी बन जाता है । अधिक क्या कहा जाय, पूजा के प्रत्येक अग-प्रत्यग को इसी आलोक में अच्छी तरह परखा जा सकता है। इसमे कही भी अनुचित स्वार्थ अथवा विषयो का हेतु लेश मात्र भी नही है।
न तो परमात्मा को इसमे कुछ लेना देना है और न हमें ही इसमें किसी द्रव्य वस्तु की प्राप्ति हे ती है। अनुराग पूर्वक परमात्मा के गुणो का अनुमोदन करते हुए उन्ही गुणो को अपनी आत्मा मे जगाना ही सब समय हमारा ध्येय रहता है । • कई कह सकते है कि "अच्छे भाव तो दर्शन मात्र से पैदा हो सकते है, अनुमोदन हो सकता है फिर इतनी द्रव्य सामग्रीसे पूजा-पाठ की क्या आवश्यकता ?"
सभी मनुष्यो को लाभ पहुँच सके ऐसे सभी प्रकार के साधन, जहाँ तक वर्न सके रखने की ही कोशिश की जाती है। बिना मूर्ति के सहारे ही यदि किसी महानुभावों के उत्तम भाव जागृत हो जाते हो तो द्रव्यो-से पूजापाठ की बात दूर, उनके लिए मूर्ति को सहारा भी न लेना उचित हो सकता है और भगवान के नाम की माला जपनी भी अनावश्यक हो सकती है, परन्तु जिनकी शक्ति इतनी सबल नही, वे उनकी बराबरी कैसे करे अपनी-२ शक्ति के अनुसार, सहारे की अपेक्षा सवको रहती है। अपनी शक्ति के अनुसार दूसरों के लिए निर्णय करना उचित नहीं। यदि इतना हम समझ लेते तो आज आपस में, मतभेदो की यह स्थिति उत्पन्न ही नहीं होती। भगवान के उत्तम गुणो को आत्मा मे जगाने के निर्मल उद्देश्य को ध्यान में रखजरूरत समझें तो हम किसी का सहारा ले, जरूरत न समझें तो न ले परन्तु जो सहारा लेना चाहते हैं, उसे भी न्याय-दृष्टि से समझे, यही उचित एवं स्पृहणीय है। - ---
शक्ति समान नहीं :-पूजा के हेतु को भी हमे गहराई से समझना चाहिए। अनेक इससे लाभान्वित होते है या नहीं इसे भी हमे देखना चाहिए। एम० ए० पढे हुए मनुष्य के लिए "क माने ककड़ी" की रट निरर्थक हो सकती है पर नव शिक्षार्थी वालक के लिए तो शिक्षा ग्रहण का एक प्रभावशाली उपाय है।