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यहाँ यह समझ लेना मावश्यक है कि ससार में सिर्फ जीवो को मारना ही 'पाप' नही है बल्कि और भी अनेक प्रकार से मनुष्य को पाप लगते हैं जैसे व्रत लेकर भग करना, झूठ बोलना, चोरी करना आदि। इसी प्रकार अधिक पदार्थों को काम में लेना इसलिए बुरा माना गया है कि इनके उचित से अधिक उपयोग पर मनुष्य स्वार्थी, विलासी, रोगी, प्रमादी, आश्रित, सामर्थ्यहीन और दूसरो के अतराय या द्वेष के कारण वन जाते है जो निश्चय ही बुरा है, पाप है। कम पदार्थों से अपना काम सुचारु रूप से चला लेना इसलिए अच्छा है कि इसके अभ्यस्त होने से मनुष्य स्वावलम्बी बनते हैं | पदार्थ कम मिलने या न मिलने के समय मे भी अपने शरीर की रक्षा कर सकते हैं, दूसरो के अन्तराय और कपाय के भी कारण नहीं वनते । अधिक पदार्थों के सग्रह में जो समय लगता उसे बचाकर अपने स्वाध्याय में लगा सकते है और रोगादिक कारणों से, जो धर्म में महा अंतराय के कारण है, वच सकते है । हिंसा का प्रश्न यहीं नही है । यदि इसमें हिंसा मानेंगे तब तो हृष्ट-पुष्ट, अच्छी क्षमता वाले, नीरोग और लम्बी उमर वाले व्यक्ति, रोगी, कमजोर दुबले पतले तथा अति अल्प आयु वाले व्यक्तियो की अपेक्षा अधिक हिंसक समझे जायेंगे क्योकि ये इनको अपेक्षा अधिक पदार्थों का उपयोग करेंगे। तो क्या रोगी, कमजोर, अल्पायु होना हमारे लिए अच्छा होगा ? तब हम कम हिंसक होगे ?
श्रावक अधिक सहुलियत का हकदार : - यह सोचना कि मुनि - महाराज की, अपने महान व्रतो के कारण ऐसे व्यवहारो में जीव हानि होने पर भी, 'हिंसा' नहीं गिनी जाती पर श्रावक की, उन्ही व्यवहारो को एक ही उद्देश्य को लेकर अपनाने पर भी, अवश्य हिंसा मानी जायेगी, असगत जान पडता है । उल्टे परमात्मा की आज्ञाम्रो में तो 'छूट' शक्ति श्रोर आवश्यकता के परिमाण से है । कमजोरो को तो और विशेष छूट दी गई है । जैसे मुनिराज अपने लिए न तो ठिकाने के दरवाजे खुलवा सकते है और न वन्द ही कर सकते है । यदि ऐसा करें तो उन्हें पाप लगे। पर साब्वीजी महाराज ऐसा व्यवहार अपना सकती हैं और उन्हें पाप नही लगता । यह इसीलिए कि उन्हें इस व्यवहार की आवश्यकता है, भले ही कुछ जीवो की हानि हो । वर्षा में मुनिराज ठल्ले पधार सकते हैं पर गोचरी नही पवार सकते | देखिये, एक ही वर्षा है, एक ही मुनि है, जीवों की विराधना का प्रसंग भी एक ही है और आज्ञा प्रदान करने वाले भी वही भगचान है | यहाँ जीवो की विराधना का ध्यान रक्खा गया या मुनि के
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